यह एक विचित्र किंतु सत्य है कि जो रचनाएं कभी लोगों के दिलों-दिमाग पर छायी हुईं थीं और जो कभी अपने समय के आंदोलनात्मक विचार की ध्वजवाहिका बन समाज को एक नई दिशा दिखा रहीं थीं, साथ ही, जो आज भी स्मरण-मात्र से पूरे काल खंड की मूल चेतना को व्याख्यायित करने में समर्थ है पर आश्चर्य है कि ऐसी ख्यातिलब्ध रचनाएँ अपने-अपने रचनाकारों के नामों को अतिक्रमित कर एक आश्चर्य का विषय बन गई हैं…. प्रश्न आखिर इनको लिखा किसने हैं ऐसा नहीं कि लोग जानते नहीं, पर ज्यादातर लोग नहीं जानते कि इन कालजयी रचनाओं को किसने है। यह आश्चर्य नहीं तो और क्या है कि जो पंक्तियां प्राय: ही घरों में गुनगुनाई जाती रहीं हों उनके रचयिता के बारे में पूछने पर हम आकाश की ओर देखने लगें। समय की शिला पर लिखी गयी इन पंक्तियों की चमक आज भी वैसी ही बरकरार है।
कुछ ऐसी ही पंक्तियों को जो कि जनमानस में रची-बसी हैं, को रचने वाले एक रचनाकार हैं, वंशीधर शुक्ल। आप उत्तर प्रदेश के लखीमपुर के रहने वाले थे। ऊर्जस्वित कलम के धनी श्री शुक्लजी ने अपने लेखन से स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई चेतना, एक नई गतिशीलता दी। आपने हिंसा-अहिंसा के प्रतिबंध विवेचन से परे सिर्फ राष्ट्रीयता का गान किया। शुक्ल जी के लिखे गीत यदि एक तरफ गांधी जी की प्रार्थना सभा में शामिल होते थे तो दूसरी तरफ उनके गीत नीताजी सुभाष चंद्र बोस के सैनिकों का उत्साहवर्धन भी करते थे। उदाहरण के तौर पर उनका एक गीत “उठ जग मुसाफिर भोर भयी, अब रैन कहां जो सोवत है” गाँधी जी का प्रिय गीत था, और गांधीजी का ही क्यों यह गीत तो जन-जन के कण्ठ पर राज कर रहा था। तो दूसरी तरफ “कदम -कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा, ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा” नेताजी के सैनिकों की परेड में गाया जाता था।
इनका एक और गीत “उठो सोने वालों! सवेरा हुआ है, वतन के फकीरों का फेरा हुआ है” बहुत चर्चित हुआ। इनकी अवधी की एक और चर्चित रचना ‘जहाँ बंदरवा डाका डालै,चोरी करइ बिलैयाहुवैं पड़ी है रामसहारे अपनी राम मड़ैया’ आदि-आदि है। शुक्ल जी की रचनाधर्मिता के विविध आयाम हैं। अवधी में जो आपका बहुआयामी और अर्थवत्तापूर्ण लेखन है, उसी के कारण आपको अवधी सम्राट कहा जाता है। आज इनके गीतों को तो हर कोई जानता है पर इन गीतों के साथ आपका ही नाम जुड़ा है यह कम ही लोग जानते हैं। इसकी एक वजह तो यह है कि हमारे यहां प्राय: रचनाधर्मी लोग नि:स्वार्थ भाव से आत्मविज्ञापन से दूर सिर्फ अपने कर्म में निरत रहते हैं। इन्हें नाम की चाह नहीं। इसकी दूसरी वजह हमारी आत्मकेंद्रीकता है।
हम किसके अवदान से आनन्दित और लाभान्वित हो रहें हैं, यह देखने की कोशिश नहीं करते। कई बार हम लोग जानते हुए भी पंक्तियों को उनके रचनाकारों के नाम के साथ उद्धृत नहीं करते हैं। यह गलत है। अगर हम जानते हैं तो पंक्तियों के साथ उनके रचनाकारों का नाम जरूर उद्धृत करना चाहिए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।।
संजीव शुक्ल
– (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)