सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।। रामचरित मानस में तुलसीदास ने इन पंक्तियों के माध्यम से राजधर्म को समझाने की कोशिश की है, जो मौजूदा राजनीतिक सत्ता के दौर में समीचीन है। विपक्ष की मांग पर शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक की। प्रधानमंत्री ने इसमें बताया कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा में नहीं घुसे। उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि भारत शांति और दोस्ती चाहता है, लेकिन देश के स्वाभिमान की रक्षा सबसे पहले है। पीएम मोदी ने एक तरफ कहा कि चीन ने जो किया है, उससे देश आहत है, लेकिन आज कोई एक इंच जमीन की तरफ आंख नहीं उठा सकता है। प्रधानमंत्री के यह शब्द निश्चित रूप से देश और सेना में दम भरने वाले हैं। मगर सवाल खुद उनके संबोधन में ही है कि अगर चीन हमारी भूमि पर नहीं आया तो हमारे सैनिकों की हत्या क्यों की गई और हमारे 10 सैनिकों को चीन ने चार दिनों तक बंधक बनाये रखा, आखिर क्यों? दूसरी तरफ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने माना था कि चीनी सेना हमारी भूमि पर अतिक्रमण कर रही थी, जिसके जवाब में यह घटना हुई। अगर यह जवाबी कार्रवाई थी तो सवाल फिर वही कि आखिर निहत्थे तीन दर्जन सैनिक अपने कमांडिंग आफिसर के साथ वहां क्यों गये थे, किसने निर्देश दिया था? सरकार के मंत्री हों या सचिव अथवा सैन्य अफसर सभी सत्ता के अनुकूल प्रिय बोल रहे हैं।
हमें याद है कि 1962 में जब हम देश के विकास और आमजन की भूख-बीमारियों से लड़ रहे थे, तब चीन ने हमें धोखा दिया था। हम तब सक्षम नहीं थे, तो उसने मित्र राज्य तिब्बत को कब्जा लिया था। भारतीय सीमा तक बढ़ आया था। उसने प्रदर्शित किया था कि भारत ने उसे इसके लिए उसे मजबूर किया है। उसके बाद हमारे देश की कूटनीति में बदलाव हुआ। हमने चीन को सदैव दुश्मन नंबर-1 की श्रेणी में रखा। वैश्वीकरण के दौर में भी हमने चीन को उतनी रियायतें नहीं दीं, जितनी उसकी अपेक्षा थी। डा. मनमोहन सिंह सरकार में वैश्विक रियायतों को आगे बढ़ाया गया और ट्रेड डील में चीन को मदद मिली मगर भारतीय हितो को ऊपर रखा गया। मोदी सरकार आने के बाद उन्होंने नीतियों में बदलाव किया। चीन से संबंध सुधारने और ट्रेड बढ़ाने पर बल दिया गया। जिनपिंग जब पहली बार भारत आये तो उनका स्वागत अहमदाबाद में झूला झुलाकर हुआ। वहां फिर वही दोहराया गया, जो गलती पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे के रूप में की थी। नतीजा यह हुआ कि छह साल में चीन ने हमारी बाजार पर 70 फीसदी कब्जा कर लिया है।
यह हमारी कूटनीतिक विफलता ही है कि नेपाल ने अपने मानचित्र के नये नक्शे को मंजूरी दे दी। इसके मुताबिक भारत का काफी हिस्सा उसका है। इस कड़ी में नेपाली प्रहरियों ने बिहार की सीमा में हमारी भूमि पर कब्जा करते हुए, गोलीबारी की। हमारे एक किसान युवक की जान चली गई और आधा दर्जन लोग घायल हो गये। ऐसा पहली बार हुआ है। नेपाल सदैव हमारा कृतज्ञ राष्ट्र रहा था। श्रीलंका में चीन ने एक पोर्ट का निर्माण किया। उसके सहारे उसने हमारे सामरिक महत्व के स्थान पर कब्जा जमा लिया है। चीन ने नेपाल और श्रीलंका के बाजार पर भी अपने उत्पादों के जरिए कब्जा किया है। अनुच्छेद 370 और एनआरसी-एनपीआर के कारण बांग्ला देश भी हमसे नाराज है। चीन ने पाकिस्तान को कोरोना काल में बहुत अधिक मदद की है। उसने अरुणाचल प्रदेश की सीमा में पिछले कुछ सालों में न सिर्फ अपने को मजबूत किया है बल्कि कई किमी हमारी भूमि पर भी कब्जा जमा लिया है। उसने यही हरकत लद्दाख में की है। चीन ने न सिर्फ पाकिस्तान तक गलियारा बना लिया है बल्कि हमारे सभी पड़ोसी देशों में अपनी पैठ भी बना ली है। ऐसे में जब वह हमारी भूमि पर अतिक्रमण कर रहा है, तो सरकार उसकी वास्तविकता से आमजन को अवगत कराने के बजाय भ्रमित कर रही है। देश राष्ट्रीय संप्रभुता के मामले में सरकार के साथ खड़ा है मगर सरकार तथ्यों को पहले छिपाती है और फिर गुमराह करती है, जो दुखद है।
चीनी सेना ने हमारे 20 सैनिकों को उनके कमांडर के साथ बुरी तरह से नुकीले हथियारों से मार डाला। यह सैनिक गरीब किसानों-मजदूरों के बच्चे थे, जिन्होंने यकीन करके सुरक्षित हाथों में देश सौंपने का स्वप्न देखा था। हमारे प्रधानमंत्री भले ही दावे करें मगर सच तो यही है कि “जय किसान के जय जवान बेटे” हमारी कूटनीतिक असफलता के कारण मौत के मुंह में समा गये। चीन की इस घटना के बाद वहां के विदेश मंत्री का जो बयान आया, वह और भी दुखद है। उन्होंने इस घटना के लिए भारत को ही दोषी ठहरा दिया। राजनीतिज्ञ की तरह बोलने वाले हमारे सैन्य प्रमुख विपिन रावत ने घटना के तथ्यों से लगातार खिलवाड़ किया। इसका नतीजा यह हुआ कि रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के बयानों में भिन्नता देखने को मिली। जो बात चीनी विदेश मंत्री ने कही, हमारे सत्तानसीनों ने उस पर मुहर लगा दी। निश्चित रूप से शांति का कोई विकल्प नहीं है। जब शांति भंग होने लगे तब सख्त कदम उठाना मजबूरी होती है। अगर हमने प्रचार तंत्र से अधिक कूटनीतिक सफलताओं पर जोर दिया गया होता तो शायद ऐसी शर्मनाक घटना न होती। हम तो महाबलीपुरम में चीनी राष्ट्रपति को खुश करने में लगे रहे। अब हमारी सरकार और उनके समर्थक लकीर पीटने में व्यस्त हो गये हैं।
पिछले एक दशक में में चीन की कंपनियां अपने उत्पादों के जरिए भारत के सभी तरह के बाजार में काबिज हो गई हैं। मोदी और जिनपिंग की अहमदाबाद बैठक के बाद चीनी कंपनियों का तेजी से भारत में प्रवेश हुआ। इसके बाद देश के बड़े प्रोजेक्ट्स में चीनी कंपनियां काबिज हो गईं। पेटीएम, जियो सहित तमाम स्टार्टअप में चीनी कंपनियों ने प्रभुत्व जमा लिया है। शायद इसी का नतीजा है कि चीन को चेतावनी देने वाले प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का वीडियो भी चीन के टिकटोक से बनाया गया। देश ऐसे वक्त में कम से कम भरोसे की बात जानना चाहता है मगर जो बयान और प्रतिक्रियायें सरकारी स्तर पर देखने को मिली हैं, वह भरोसे काबिल नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा मगर ऐसा क्या हुआ कि हम कह सकें कि बलिदान व्यर्थ नहीं गया। अचानक कुछ लोग निकल पड़े कि वह चीन के उत्पादों को जलाएंगे मगर उनके पास ऐसा कोई जवाब नहीं था कि आखिर इन उत्पादों की होली जलाने से क्या हल निकलेगा? इन उत्पादों को भारतीय मुद्रा से खरीदकर उन्हें जलाने से क्या दोहरा नुकसान नहीं होगा? क्या गालवान घाटी वापस मिल जाएगी? क्या वीभत्स तरीके से मारे गये जवानों की जान वापस आ जाएगी? चीन लगातार दावे कर रहा है कि गालवान घाटी उसकी है। चीनी कंपनियों और उनके उत्पाद के आयात पर सरकार पूर्ण प्रतिबंध लगाए, तब उसे माकूल जवाब मिलेगा। सरकार और उनके समर्थकों से यही आग्रह है कि जनता ने आप पर भरोसा किया है तो आप भी उनके भरोसे को कायम कीजिए।
जयहिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)