संत राजिन्दर सिंह जी महाराज
जब हम गुरु भक्ति की बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हम अपने गुरु द्वारा दी गई शिक्षा को अपने जीवन में ढालें। गुरु से हमारा तात्पर्य इस दुनिया के उन गुरु से नहीं हैं, जो हमें इस बाहरी दुनिया की शिक्षा देते हैं जैसे अध्यापक, प्रोफेसर आदि। बल्कि गुरु से हमारा मतलब एक आध्यात्मिक गुरु से है जो हमें यानि हमारी आत्मा को इस माया की दुनिया से निकालकर पिता-परमेश्वर में लीन करा दे। जब हम वक्त के किसी पूर्ण गुरु के चरण-कमलों में पहुँचकर उनसे दीक्षा ग्रहण करते हैं तो हमारे और गुरु के बीच एक प्रेम का रिश्ता कायम हो जाता है। यह प्रेम कोई शारीरिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक होता है। गुरु और हमारे बीच प्रेम का रिष्ता इतना गहरा होना चाहिए जिससे कि इस माया की दुनिया के जितने भी आकर्षण हैं वो हमें अपनी ओर न खेंच सकें। एक सच्चे शिष्य की हमेशा यही कोशिश होती है कि वह अपना जीवन अपने गुरु के हुकम के अनुसार बनाए, इसे ही गुरु भक्ति कहा गया है।
एक सच्चा शिष्य यह अच्छी तरह जानता है कि गुरु के द्वारा ही उसकी आत्मा का मिलाप ताकि परमात्मा में हो सकता है। अगर हम एक सच्चे शिष्य की भांति अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कराना चाहते हैं तो हमें अपना पूरा ध्यान आध्यात्मिक मार्ग पर लगाने की ज़रूरत है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए सबसे पहले हमें अपने अंदर गुरु के लिए प्रेम उत्पन्न करना होगा। इस हलचल भरी दुनिया में हम यह कैसे कर सकते हैं? क्योंकि इस माया की दुनिया के आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते हैं। वह ताकत नहीं चाहती कि हम आत्माएं वापिस परमात्मा के पास जाएं। इसीलिए वह हमें इस दुनिया में फंसाए रखने के लिए कई प्रकार के प्रलोभन देती है।
इस माया के चुंगल से बचने के लिए केवल आध्यात्मिक गुरु ही हमारी मदद कर सकते हैं? वह कैसे? क्योंकि उनके पास एक दिव्य-शक्ति है और वो हैं उनका दिव्य-प्रेम। उनका यह प्रेम उनकी अँाखों के ज़रिये हमारे तक आता है। अगर हम पात्र होते हैं तो हम उनके दिव्य-प्रेम में रंगे जाते हैं। जिससे कि वे हमें इस दुनिया के आकर्षणों से छुड़ाकर हमेशा-हमेशा रहने वाले प्रभु के प्रेेम से भर देते हैं। यह गुरु के प्रेम की ही ताकत है, जिससे हम वापिस अपने निजघर पिता-परमेश्वर के पास जा सकते हैं।
हमारे गुरु चाहते हैं कि हम आध्यात्मिक शिक्षाओं को समझकर अपनी ज़िंदगी में ढालें ताकि इसी जीवन में हमारी आत्मा का मिलाप परमात्मा से हो। लेकिन हमने कभी न तो परमात्मा को देखा है तथा न ही उनसे कभी बात की है। जिससे कभी मिले नहीं, देखा नहीं, उससे प्रेम करना बहुत मुश्किल है। तो फिर हम परमात्मा के लिए प्रेम कैसे उत्पन्न कर सकते हैं? इतना गहरा प्रेम जो इस दुनिया की सभी खुशियों से ज्यादा लुभावना लगे। इसका सीधा सा जवाब यह है कि हम अपने गुरु के ज़रिये परमात्मा से प्रेम कर सकते हैं क्योंकि गुरु को परमात्मा का रूप कहा गया है। उनके प्रेम के ज़रिये ही हम पिता-परमेश्वर से प्रेम कर सकते हैं। गुरु के माध्यम से ही हम पिता-परमेश्वर का प्रेम पाते हैं, जो इस दुनिया के प्रेम से कई गुणा बढ़कर होता है। यह प्रेम गुरु के शारीरिक रूप से नहीं बल्कि उनके अंदर काम करने वाली प्रभु-सत्ता से प्रवाहित होता है।
इस तथ्य को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। जब हम घर में बत्तियां जलाते हैं तब हमें बल्ब की कंपनी से बिल प्राप्त नहीं होता। हमें वह बिजली घर से मिलता है, जहां से बिजली का उत्पादन होता है। बल्ब केवल एक माध्यम है, जिससे प्रकाश हमारे घरों तक पहुँचता है। हमें बल्ब की आवश्यकता है, हम बल्ब को महत्त्व देते हैं लेकिन असली बिजली तो बिजली घर से ही आ रही है।
ठीक इसी तरह गुरु का शरीर भी बल्ब या वह माध्यम है जिससे परमात्मा की शक्ति हम तक पहुँचती है। इसीलिए हम गुरु का आदर करते हैं, सम्मान करते हैं। इन भौतिक अँखों से हम केवल जड़ता से बनी चीज़ें ही देख सकते हैं, परमात्मा को नहीं। गुरु हमारे शिवनेत्र को खोलता है जिससे कि हम अपने अंदर प्रभु की ज्योति और श्रुति का अनुभव कर सकते हैं। गुरु के माध्यम से पिता-परमेश्वर हमें वापिस अपने घर बुलाते हैं। हम परमात्मा की आवाज़ को प्रत्यक्ष रूप से नहीं सुन सकते लेकिन हम गुरु के सत्संग या प्रवचनों द्वारा परमात्मा हमसे क्या कहना चाहते हैं, उसे सुन सकते हैं।
पिता-परमेश्वर ने गुरु-शिष्य के बीच प्रेम का रिश्ता इसलिए बनाया है ताकि शिष्य अपने गुरु से प्रेम करे और उस दिव्य-प्रेम के ज़रिये वापिस परमात्मा तक पहुँच सके। जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो हम उनका कहना जरूर मानते हैं। इसलिए हमें चाहिए कि अगर हम अपने गुरु से प्रेम करते हैं तो उनका कहना माने। हम अपने जीवन में सद्गुणों को ढालें और प्रतिदिन ध्यान-अभ्यास में समय दें ताकि हमारी आत्मा का मिलाप इसी जीवन में पिता-परमेश्वर से हो जाए। यही सच्चे मायनों मे गुरु भक्ति है।
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