1947 में भारत आजाद हो गया था। पर वही भारत जो ब्रिटिश राज के अधीन था। शेष लगभग दो तिहाई भारत उन रियासतों के अधीन था, जो भारत और पाकिस्तान में फैली हुई थीं। इन रियासतों की संख्या 565 थी। इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 जिसके द्वारा भारत को स्वतंत्रता मिली है में, इन रियासतों के संदर्भ में यह विकल्प दिए गए थे कि, या तो देसी रियासतें भारत या पाकिस्तान में जहां उनकी इच्छा हो, सम्मिलित हो जांय या खुद ही स्वतंत्र हो जांय। सभी रियासतें बड़ी नहीं थीं। इनमें से अधिकांश रियासतों ने ब्रिटिश सरकार से लोकसेवा प्रदान करने एवं कर (टैक्स) वसूलने का ठेका ले लिया था। कुल 565 में से केवल 21 रियासतों में ही सरकार थी और मैसूर, हैदराबाद, कश्मीर, त्रावणकोर, बलोचिस्तान की रियासतें ही क्षेत्रफल में बड़ी थीं। भारत मे तीन रियासतों, हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के विलय को लेकर विवाद हुआ था। पर हैदराबाद और जूनागढ़ भारतीय संघ में शामिल हो गया और उसे लेकर कोई भी विवाद नहीं है जबकि कश्मीर के विलय के बाद भी, कुछ न कुछ आशंकाएं उठती रहतीं हैं।
कश्मीर एक अलग रियासत थी और उसके राजा थे हरि सिंह। यह रियासत डोगरा राजपूतों की थी। जब 1946 के अंत में ब्रिटेन ने यह घोषणा कर दी कि वे भारत को जून 48 के पहले ही आजाद कर देंगे तो आजाद भारत के स्वरूप और देसी रियासतों के भविष्य पर चर्चा होने लगी। कश्मीर के राजा की यह इच्छा थी कि वे खुद तब भी आजाद रहना चाहेंगे जब भारत आजाद हो जाता है और अगर धर्म के आधार पर पाकिस्तान बन भी जाता है तो वे यूरोप के स्विट्जरलैंड की तरह एक ऐसा इलाका बने रहेंगे जिससे किसी के प्रति उनका बैर न हो। लेकिन वह यह कटु तथ्य भूल गए कि एमए जिन्ना की मांग ही मुस्लिम बहुल आबादी को पाकिस्तान में लेने की है तो मुस्लिम बहुल आबादी वाला कश्मीर कैसे बच सकता था। अगर कश्मीर भी ब्रिटिश भारत का अंग होता तो धर्मगत जनसंख्या के पैमाने से पाकिस्तान का ही भाग होता पर वह एक स्वतंत्र रियासत थी तो उस पर इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के वही प्राविधान लागू हुए जो सभी देसी रियासतों पर लागू हुए थे। अब यह निर्णय राजा हरि सिंह को करना था कि वह भारत में रहते हैं या पाकिस्तान की तरफ जाते हैं या स्विट्जरलैंड का सपना लिए एक खूबसूरत आजाद मुल्क बने रहते हैं। जब आजादी की घोषणा हुई तो अधिकांश देसी रियासतों ने भारत और पाकिस्तान में विलीन होने का निर्णय तुरंत ले लिया और उनको लेकर कोई समस्या भी नहीं हुई। पर कश्मीर में जहां हरि सिंह खुद आजाद रहना चाहते थे ने पाकिस्तान और भारत के साथ एक यथास्थिति संधि (स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट) किया जिसके अनुसार, अभी जो स्थिति है वही आगे बनी रहेगी।
पाकिस्तान ने तो उस स्टैंडस्टिल संधि पर दस्तखत कर दिए, पर भारत ने नहीं किया। उधर, पाकिस्तान की तरफ से कबायलियों ने कश्मीर पर 22 अक्टूबर 1947 को हमला कर दिया। पाकिस्तान की इसमें शह थी और उसकी सेना भी क्षद्मरूप में इस हमले में शामिल थी। इस हमले का जवाब देने की क्षमता हरि सिंह की फौज में नहीं थी। उन्होंने भारत से सहायता मांगी और तब भारत ने बिना भारतीय संघ में विलय हुए सहायता देने में असमर्थता जताई। 26 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह ने विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए तब भारतीय सेना कश्मीर में दाखिल हुई। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने इस विलय पत्र को मंजूरी दे दी। विलय पत्र पर विवाद होने की स्थिति में इसका निर्णय जनता पर छोड़ने की बात भारत सरकार द्वारा कही गई थी। जब कश्मीर पर से कबायली संकट समाप्त हो गया तो विलय की पेचीदगियों पर चर्चा और मंथन शुरू हुआ। विलय के समय जम्मू-कश्मीर सरकार ने मसौदे का जो ड्रॉफ्ट, भारत सरकार को भेजा था, उस पर सहमति बनाने के लिए उभय पक्षों में करीब पांच महीने तक लंबी बातचीत चलती रही। 27 मई 1949 को अनुच्छेद 306 ए, जो अब 370 है, संविधान सभा मे प्रस्तुत किया गया। यही अनुच्छेद आज कश्मीर समस्या की जड़ के रूप में बताया जा रहा है। संविधान सभा में यह अनुच्छेद जोड़ने का प्रस्ताव पेश करते हुए एन गोपालस्वामी अयंगर ने कहा था कि, वैसे तो कश्मीर का विलय पूर्ण हो गया है, लेकिन जब राज्य में परिस्थितियां सामान्य हो जाएंगी तो हम जनमत संग्रह का मौका देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि, अगर जनमत संग्रह भारत के पक्ष में नहीं होगा, तो हम कश्मीर को भारत से अलग करने से भी पीछे नहीं हटेंगे। जब यह संशोधन पेश हो रहा था तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी संविधान सभा मे ही थे। उन्होंने कोई आपत्ति की हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। इससे उनकी सहमति ही प्रमाणित होती है।
16 जून 1949 को जम्मू कश्मीर राज्य की तरफ से, शेख अब्दुल्ला और तीन सदस्य, भारत की संविधान सभा के सदस्य के रूप में शामिल हुए। अयंगर ने 17 अक्टूबर 1949 को एक बार फिर दोहराया कि, कश्मीर की विधायिका द्वारा तैयार किया गया अलग से संविधान और जनमत संग्रह हमारा वादा है। उसी दिन भारत की संविधानसभा द्वारा संविधान में अनुच्छेद 370 को भारत के संविधान में शामिल किया गया था। अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान के 21वें भाग का पहला अनुच्छेद है। इस भाग का शीर्षक है अस्थाई, परिवर्तनीय और विशेष प्रावधान। हालांकि अनुच्छेद 370 अस्थाई इसलिए था क्योंकि कश्मीर की संविधान सभा को अनुच्छेद 370 में बदलाव करने, खत्म करने और बनाए रखने का अधिकार था। जम्मू कश्मीर संविधान सभा ने उसे कायम रखा। यह बात बिल्कुल सही है कि यह धारा अस्थाई प्राविधान के रूप में संविधान में जोड़ी गई थी। अब भी वह शब्द मौजूद है। यह संविधान के भाग क में जोड़ा गया है। इस भाग का शीर्षक है, अस्थाई, परिवर्तनीय और विशेष प्राविधान। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में डॉ. फैजान मुस्तफा ने धारा 370 को स्पष्ट करते हुए एक विद्वतापूर्ण लेख लिखा है। उस लेख के अनुसार, यह अनुच्छेद इसलिए भी अस्थाई है कि जम्मू कश्मीर की संविधान सभा को इसे बदलने का अधिकार है। इस धारा के हटाने के बारे में, जब संसद में सवाल पूछा गया कि क्या सरकार उसे हटाने पर विचार कर रही है तो सरकार ने उसे ऐसे किसी प्रस्ताव के होने से इनकार कर दिया है। यह कहा गया कि अभी सरकार का कोई विचार नहीं है। यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में भी एक जनहित याचिका जो कुमारी विजयलक्ष्मी द्वारा दायर की गई थी, के द्वारा गया, जहां अदालत ने भी इस धारा को अस्थाई माना और कहा कि यह एक धोखा (फ्रॉड) है। पर इसी मामले पर सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण दिल्ली हाईकोर्ट से अलग था। सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2018 के एक निर्णय में यह कहा कि यह प्राविधान भले ही अस्थाई प्राविधान के रूप में दर्ज हो, पर यह अस्थाई नहीं है। संपत प्रसाद के मामले (1969 ) में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने यह निर्णय दिया था कि यह प्राविधान कभी भी इनआॅपरेटिव नहीं रहा है अत: इसे अस्थाई नहीं कहा जा सकता है और पीठ ने इसे अस्थाई मानने से अस्वीकार कर दिया।
यह धारा देश की एकता के हित मे है या यह अलगाववाद को जन्म देती है, इस पर लंबी बहस सदैव से चलती रही है। अनुच्छेद 370 में ही अनुच्छेद एक का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भारत के राज्यों की फेहरिस्त में जम्मू-कश्मीर वैसे ही उल्लिखित है, जैसे अन्य राज्यों के नाम दर्ज हैं। भारत सरकार ने 1964 में लोकसभा में कहा था कि, अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान और कानून को कश्मीर में लागू करने का रास्ता है। जवाहरलाल नेहरू ने भी एक बार लोकसभा में स्वीकार किया था कि अनुच्छेद 370 को नरम किया गया है। भारत के संविधान को जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए अनुच्छेद 370 का 48 बार इस्तेमाल किया गया। जम्मू-कश्मीर पर राष्ट्रपति के आदेशों को लागू करने के लिए भी अनुच्छेद 370 ही एक जरिया है, जिससे राज्य का विशेष दर्जा खत्म होता है। 1954 के एक फैसले के बाद जम्मू-कश्मीर पर पूरी तरह से भारतीय संविधान को लागू किया जा चुका है, जिसमें संविधान संशोधन भी शामिल हैं। केंद्रीय सूची के 97 में से 94 विषय राज्य पर लागू होते हैं। इसी तरह संविधान के कुल 395 अनुच्छेद में से 260 अनुच्छेद राज्य पर लागू होते हैं। ठीक इसी तह 12 अनुसूचियों में से सात अनुसूचियां भी जम्मू-कश्मीर में लागू होती हैं। इसी तरह कश्मीर के संविधान के ज्यादातर अनुच्छेद भारतीय संविधान के अनुच्छेदों के समान ही बने हुए है ऐसा भी नहीं है कि यह विशेष दर्जा केवल जम्मू-कश्मीर को ही अपवाद स्वरूप दिया गया है। बल्कि भारत के कुछ अन्य राज्य भी हैं जिन्हें विभिन्न प्रकार का विशेष दर्जा मिला हुआ है। संसद का कोई भी कानून बिना नागालैंड विधानसभा की मंजूरी के वहां लागू नहीं हो सकता है।
अब सवाल उठता है कि क्या इसे खत्म किया जा सकता है? इसका उत्तर धारा 370 के उपधारा 3 में ही है कि इसे खत्म किया जा सकता है। पर सरकार इसे खत्म करना चाहती है या यह वादा भी एक जुमला ही है यह तो वही जानें। पर यह अनुच्छेद जम्मू कश्मीर को अलग नहीं बल्कि जोड़ता है। भूमि की खरीद फरोख्त को लेकर भी अक्सर इस धारा को बाधक बताया जाता है। पर भूमि की खरीद को लेकर अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर आदि राज्यों में कुछ हद तक प्रतिबंध है। भाजपा द्वारा धारा 370 हटाने का वादा उनका एक कोर वादा है। पर 1998 से 2004 तक और फिर 2014 से अब तक कुल 11 साल की सरकार रहने पर भी एक बार भी भाजपा या एनडीए सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे यह आभास हो कि सरकार अपने इस कोर वादे को लेकर गम्भीर हो। यह भी तर्क दिया जाता है कि यह धारा खत्म होते ही जम्मू कश्मीर का विलय खत्म हो जाएगा। अब यह कैसे होगा इस पर कोई स्पष्ट राय नहीं है। सरकार को इस धारा की वैधानिकता, इसे बनाये रखने और खत्म करने से होने वाली लाभ हानि का आकलन करने के लिये विधि विशेषज्ञों की एक कमेटी बना कर सभी संभावनाओं का परीक्षण करना और तब कोई निर्णय लेना चाहिए। कश्मीर एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है। इस संबंध को लिए गए हर निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे।
विजय शंकर सिंह
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)