Arnab Goswami’s case and freedom of expression: अर्नब गोस्वामी का मामला और अभिव्यक्ति की आजादी

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अर्नब गोस्वामी के मामले में ताजी खबर यह है कि 9 नवंबर को बॉम्बे हाईकोर्ट ने अंतरिम जमानत की उनकी अर्जी खारिज कर दी है, और उन्होंने सत्र न्यायालय में भी जमानत के लिए अपनी अर्जी लगाई है, जिसपर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है। अर्नब गोस्वामी की अर्जी पर लगातार सुनवाई हाईकोर्ट में चल रही थी और उनके वकील हरीश ने यह तक कह दिया था कि, उन्हे रिहा कर दिया जाने से कोई आसामन नहीं गिर जाएगा। न्यायालय में लगातार हुयी सुनवायी के बाद यह निर्णय आया है।
भले ही अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी उनके निजी व्यायसायिक लेनदेन के कारण महाराष्ट्र की रायगढ़ पुलिस द्वारा की गयी हो, पर इस गिरफ्तारी का सबसे प्रबल विरोध भाजपा द्वारा किया गया और चूंकि अर्नब गोस्वामी एक बड़े और महत्वपूर्ण पत्रकार हैं और उनकी पत्रकारिता की लाइन सत्ता समर्थक है तो, इस गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की आजादी या प्रेस की आजादी पर महाराष्ट्र सरकार का हमला कह कर प्रचारित किया जा रहा है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहे वह किसी व्यक्ति की हो या समाज की या प्रेस की, यह किसी भी लोकतंत्र का बुनियादी उसूल है और इसके बिना न तो लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है और न ही लोककल्याणकारी राज्य की तो, राज्य का उद्देश्य और दायित्व है कि वह इसे बनाये रखे और जनता का कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहे। सच तो यह है कि, जन अभिव्यक्ति के आजादी की राह, प्रेस की अभिव्यक्ति की आजादी के ही भरोसे सुरक्षित रह सकती है। पर इसके लिये आवश्यक है कि प्रेस जनपक्षधर पत्रकारिता की ओर हो। अर्नब के इस मुकदमे के जरिए अगर अभिव्यक्ति की आजादी पर बहस छिड़ती है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिए, पर यह बहस सेलेक्टिव न हो और दलगत स्वार्थ से परे हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिये।
अब यह सवाल उठता है कि आज जो लोग अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी की बात उठा रहे हैं, वह केवल अर्नब गोस्वामी के पक्ष में उठा रहे हैं या भारत के विभिन्न राज्यो में प्रेस और पत्रकारो के जो उत्पीड़न पिछले सालों में हुए हैं या अब भी हो रहे हैं, के प्रति भी उनका आक्रोश है? कम से कम 20 घटनाएं तो सरकार विरोधी खबर छापने पर यूपी में पत्रकारों के खिलाफ ही हुयी है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात आदि अन्य राज्यों से भी ऐसी खबरें आ रही है। सरकार कोई भी हो अपनी आलोचना से तिलमिलाती जरूर है। बस सरकार इन सब पर रिएक्ट कितना, कैसे और कब करती है यह तो सरकार की सहनशक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उसके कमिटमेंट पर निर्भर करता है।
अर्नब गोस्वामी का यह मामला, प्रथम दृष्टया, न तो पत्रकारिता के मूल्यों से जुड़ा है और न ही अभिव्यक्ति की आजादी का है। यह मामला, काम कराकर, किसी का पैसा दबा लेने से जुड़ा है। यह दबंगई और अपनी हैसियत के दुरुपयोग का मामला है। जब आदमी सत्ता से जुड़ जाता है तो वह अक्सर बेअन्दाज भी हो जाता है, और यह बेअंदाजी, एक प्रकार की कमजरफियत भी होती है। अर्नब भी सत्ता के इसी हनक के शिकार हैं। ऐसे बेअंदाज लोग, यह सोच भी नहीं पाते कि धरती घूमती रहती है और सूरज डूबता भी है। वे अपने और अपने सरपरस्तों के आभा मंडल में इतने इतराये रहते हैं कि उनकी आंखे चुंधिया सी जाती है और रोशनी के पार जो अंधकार है, उसे देख भी नहीं पाती हैं।
आज अर्नब एक महत्वपूर्ण पत्रकार है। पर वे अपनी पत्रकारिता की एक विचित्र शैली के कारण खबरों में हैं, न कि पत्रकारिता के मूल उद्देश्य और चरित्र के कारण। उनकी शैली व्यक्तिगत हमले और वह भी तथ्यो पर कम, निजी बातों पर अधिक करने की है। रिपब्लिक टीवी हिंदी, जिसके वे चीफ एडिटर हैं, का पहला ही एपिसोड शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मृत्यु के बारे में था। इसी प्रकार जब वे पालघर भीड़ हिंसा मामले में, सोनिया गांधी पर निजी टिप्पणी कर के, सत्तारूढ़ दल से शाबाशी बटोर रहे थे, तब उसी क्रम में उनके खिलाफ विभिन्न स्थानों पर मुकदमे दर्ज हुए।
तब भी प्रेस की आजादी पर बहस उठी थी। इस मामले में उन्हें राहत भी सुप्रीम कोर्ट से मिली। अर्नब के इस संकटकाल में जिस तरह से भारत सरकार उनके पक्ष में खड़ी है, यही इस बात का प्रमाण है कि, वे सत्ता के बेहद नजदीक हैं। पालघर भीड़हिंसा रिपोर्टिंग के बाद ही उनके सम्बंध महाराष्ट्र राज्य सरकार से असहज हो गए। तभी अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या की घटना हो गयी। यह एक संदिग्ध मृत्यु की घटना थी, जिसकी जांच मुम्बई पुलिस कर रही थी, तभी पटना में सुशांत के पिता ने उनकी हत्या की आशंका को लेकर एक मुकदमा दर्ज करा दिया जो विवेचना के लिये सीबीआई को बाद में भेज दिया गया।
सीबीआई ने जांच की, और अब यह निष्कर्ष निकल कर सामने आ रहा है कि घटना आत्महत्या की ही थी। इसी में सुशांत की मित्र रिया चक्रवर्ती जो एक अभिनेत्री है, पर अर्नब गोस्वामी ने अपनी रिपोर्टिंग का पूरा फोकस कर दिया और लगभग रोज ही वे यह साबित करते रहे कि सुशांत ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि उनकी हत्या हुयी है और इसमे रिया का हांथ है। रिया इस मामले में महीने  भर जेल में भी रहीं। यह खबर सीरीज यदि आपने देखी होगी तो आप को स्वत: लगा होगा कि, यह खबर सुशांत की आत्महत्या के बारे में कम, बल्कि हर तरह से रिया को उनकी हत्या का दोषी ठहराने के लिये जानबूझकर कर किसी अन्य उद्देश्य की आड़ में चलायी जा रही है। इसी बीच इस मामले में उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे का भी नाम आया।
जब यह नाम आया तो अर्नब की खटास महाराष्ट्र सरकार से और बढ़ गयी और यह मामला अब प्रेस और सरकार के आपसी संबंधों तक ही सीमित नही रहा। उधर  केंद्र सरकार  और उद्धव सरकार के रिश्ते अच्छे नहीं है। राजनीतिक रस्साकशी तो है ही पर अर्नब इस रस्साकशी में एक मोहरा बन कर सामने आ गए। अब यह भूमिका उन्होंने, सायास चुनी या अनायास ही परिस्थितियां ऐसी बनती गयी कि वे औ? महाराष्ट्र सरकार बिल्कुल आमने सामने हो गए, यह तो अर्नब ही बता पाएंगे। भाजपा, अर्नब गोस्वामी के साथ आज खुल कर है। अर्नब और भाजपा में जो वैचारिक साझापन है, उसे देखते हुए भाजपा के इस रवैये पर किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए। अर्नब की पत्रकारिता सरकार और सत्तारूढ़ दल की पक्षधर है।
यह कोई आपत्तिजनक बात नही है। पक्ष चुनने का अधिकार अर्नब को भी उतना ही है जितना मुझे या किसी अन्य को। अर्नब ने उनके लिये इतनी चीख पुकार मचाई और एजेंडे तय किये हैं तो, उनका भी यह फर्ज बनता है कि वे अर्नब के पक्ष में खड़े हों। और वे खड़े हैं भी। लेकिन आश्चर्य यह है कि नैतिकता और चारित्रिक शुचिता को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखने वाले भाजपा के मित्र आखिर किस मजबूरी में, कठुआ रेप कांड से लेकर, शंभु रैगर, आसाराम, हाथरस गैंगरेप, बलिया के हालिया हत्याकांड सहित अन्य बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमे वे अभियुक्तों के साथ, पूरी गर्मजोशी से खुल कर उनके समर्थन में आ जाते हैं? राष्ट्रवादी होने और हिंदुत्व की ध्वजा फहराने के लिये यह जरूरी तो नहीं कि जघन्य अपराधों के अभियुक्तों के साथ उनके समर्थन में बेशर्मी से एकजुटता दिखाई जाय?
आज अगर वे, पत्रकारिता की आड़ में, अन्वय नायक का  पैसा दबाने वाले अर्नब के पक्ष में खड़े हैं तो आश्चर्य किस बात का है ? यह उनका चाल, चरित्र और चेहरा है या पार्टी विद अ डिफरेंस की परिभाषा? जो लोग अर्नब के पक्ष में खड़े हैं, वे अर्नब गोस्वामी से कहें कि टीवी पर बैठ कर, कहां हो उद्धव, सामने आओ, दो दो हांथ करूँगा, कहाँ हो परमवीर।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)