जबसे केंद्र सरकार नए कृषि विधेयकों को लेकर आई है, तबसे इसके पक्ष-विपक्ष में कई तर्क रखे जा चुके हैं। सरकार यह दावा कर रही है कि यह भारतीय कृषि क्षेत्र को बदल देंगे और निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देंगे।
आंदोलनकारी किसानों को डर है कि शक्तिशाली निवेशक उन्हें बड़े कॉरपोरेट लॉ फर्मों द्वारा तैयार किए गए प्रतिकूल अनुबंधों के लिए बाध्य करेंगे जो ज्यादातर गरीब किसानों की समझ से परे होंगे। सिविल कोर्ट बराबर ताकत से लैस स्थानीय प्रशासन, ट्रेड एरिया और ट्रेडर कि परिभाषा में मंडीयों का जिक्र ना होना तो विरोध का कारण है ही। एक तरफ सरकार कह रही है कि इन अधिनियमों से किसान कहीं भी अपनी उपज बेचने के लिए स्वतंत्र होगा वहीं विपक्ष का कहना है कि किसान अभी भी आवश्यक शुल्क का भुगतान करने के बाद एपीएमसी के बाहर अपनी उपज बेच सकते हैं। विरोध के केंद्र पंजाब और हरियाणा में बाजार शुल्क, ग्रामीण विकास शुल्क और आढ़तियों के कमीशन राज्य राजस्व के बड़े स्रोत हैं। नए अधिनियमों के बाद से पंजाब और हरियाणा को हर साल अनुमानित 3,500 करोड़ और 1,600 करोड़ रुपये का नुकसान होगा।
सरकार के पक्ष वाले लोग अक्सर इस बात को दोहराते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से मात्र 6 प्रतिशत किसान ही लाभान्वित होते हैं। अन्य को ऐसा कोई लाभ नहीं है। हालांकि जिस शांता कुमार पैनल के हवाले से यह 6 प्रतिशत का आंकड़ा आया है वह पैनल के आंकड़े सिर्फ धान और गेहूं के किसानों पर आश्रित हैं। वास्तविकता में यह तब भी कमतर हैं। एनएसएसओ के मुताबिक, भारत के 9 करोड़ कृषि परिवारों में से लगभग आधों ने जुलाई-दिसंबर 2012 के दौरान धान की खेती की और जनवरी-जून 2013 में अन्य 84 लाख इसमें जुड़े। उसी वर्ष तकरीबन 3.5 करोड़ किसानों ने गेहूं की खेती की।
यदि भारत का 43.4 प्रतिशत धान और 36.2 प्रतिशत गेहूं सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा गया है, तो यह स्पष्ट है कि एमएसपी का लाभ रिपोर्ट के 5.8 प्रतिशत से काफी अधिक है। खाद्य मंत्रालय के मुताबिक 2019-20 में 1.5 करोड़ धान और गेहूं किसानों को एमएसपी खरीद से लाभ हुआ जो पैनल के 50.21 लाख किसानों के अनुमान से काफी ऊपर है। इसके अलावा अगर हम अन्य फसलों पर विचार करें तो पाएंगे कि- कपास और गन्ना के खेती करने वाले तकरीबन 1.37 करोड़ घरों में से 1 करोड़ एमएसपी या एफआरपी में से किसी एक का लाभ उठाते हैं।
एनडीडीबी के अनुसार भारत में 1.69 करोड़ डेयरी उत्पादक हैं। अगर उनमें से आधे नियमित रूप नहीं भी चलते हैं, तब भी 80 लाख से अधिक आज न्यूनतम सहायक मूल्य पर दूध बेच रहे हैं। कुल मिलाकर, यह निश्चित है कि एमएसपी सभी फसलों (दाल और तिलहन मिलाकर) के 2.5 करोड़ से अधिक किसानों को लाभान्वित करती है। ऐसे में एमएसपी से लाभान्वित होने वालों की संख्या 15 प्रतिशत और 25 प्रतिशत के बीच कहीं है। यह 6 प्रतिशत तो नहीं ही है। मेरा निजी विचार है कि किसानों को एमएसपी से ज्यादा कुछ और जरूरी है, जैसे- यह सुनिश्चित हो कि सरकार किसानों को मुक्त बाजारों से लाभान्वित होने देगी। यानी जब किसी उपज की कीमतें बढ़े, तो किसानों पर निर्यात प्रतिबंध ना लगाया जाए। दूसरा, किसानों को संकटग्रस्त बिक्री से बचाने के लिए सहायक आधारभूत संरचना तैयार करने की आवश्यकता है। कुशल वेयरहाउसिंग एक गेमचेंजर हो सकता है। तीसरा कि बाजार के मुक्त खेलने को एक अनियमित और शोषणकारी शासन में परिवर्तित ना होने दिया जाए। वहीं सरकार को भी कृषि- क्षेत्र की हालत को समझना चाहिए। एमएसपी बढ़ाने के बावजूद 2019 में
किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था। 3.4 प्रतिशत की विकास दर चमत्कारिक बताई जा रही है। लेकिन खेती के जीवीए में बढ़ोतरी बीते बरस से काफी कम (8.6 से 5.7 प्रतिशत) है। यानी उपज का मूल्य तो बढ़ा नही और पैदावार बढ़ाकर किसान ज्यादा गरीब हो गए। खेती में आय पिछले 4-5 वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात में कम ही हुई है। एक और समस्या यह है कि यह कानून केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं भी या नहीं इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी जा सकती है।
यह विषय राज्य सूची का है। सनद रहे कि संसद के पास कृषि बाजारों और भूमि पर कानून बनाने की शक्ति नहीं है। जरूरी था कि इन कानूनों को लागू करने से पहले संविधान में संशोधन किया जाता और इस विषय को केंद्र या समवर्ती सूची के अंतर्गत लाया जाता। ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन कि सरकारों के समाधान अक्सर समस्याओं को और बढ़ा देते हैं।चने के लिए स्वतंत्र होगा वहीं विपक्ष का कहना है कि किसान अभी भी आवश्यक शुल्क का भुगतान करने के बाद एपीएमसी के बाहर अपनी उपज बेच सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)