आदिवासी वर्षोें से शिकायत कर रहे हैं उनका शोषण, नेता, नगरसेठ, राजस्व, आबकारी, पुलिस, वन और खदान विभाग के अधिकारी सहित कलेक्टर, कमिश्नर और गांव स्तर के जनप्रतिनिधि करते रहते हैं। कोई सरकार आश्वासन पत्र की गारंटी प्रकाशित नहीं करती कि शासकीय अमानत में खयानत की बददिमागी को आदिवासियों के हित में चुस्त दुरुस्त कर लेगी। कोई राजनेता कसम नहीं खाता आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल, अस्पताल, नौकरी, पीने के पानी, सस्ते अनाज, सफाई वगैरह की प्राथमिक जरूरतें गैर आदिवासी क्षेत्रों के बराबर कर दी जाएंगी।
सरकारें एलान नहीं करतीं संसद में पारित संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूची के अनुसार आचरण करके दिखाएंगी। सिविल समाज और निष्पक्ष मीडिया को नहीं दिखातीं कि वनवासियों को भूमि के पट्टे वास्तव में बांटकर उन्हें व्यवस्थापित और स्थापित करेंगी तथा नक्सलवाद को विस्थापित करेंगी। सरकारें नहीं बतातीं कि क्यों पंचायतों के कानून का वह संशोधन लागू नहीं करतीं जिसे संसद ने आदिवासी इलाकों के लिए पारित किया है। आदिवासियों की जमीन जबरिया छीनकर टाटा, अम्बानी, एस्सार सहित मलेशिया के सलीम संस्थान को गरीब की छाती पर मूंग दलने का कौन सा अधिकार है?
सिविल समाज देख रहा है बहुत से वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों ने पद की टेस के कारण गोलियां चलवार्इं। नकली प्रायश्चित मुद्रा में सेवानिवृत्ति के बाद स्वैच्छिक संगठनों के कर्ताधर्ता बने मानव अधिकारों के नए रक्षक बनकर उभरे। इन्हें सरकारों तथा विदेश से धन मिलता है। मिलीजुली कुश्ती की तरह गुजरात के दंगों की आलोचना करते हैं। मानव अधिकारों के नाम पर नक्सलियों की हिफाजत करते हैं। उन गरीब परिवारों के बारे में औचक या भौचक होकर कभी कुछ नहीं कहते जो गरीबी की वजह से पेट की रोटी कमाने के लिए मजबूरी में नक्सली बनते हैं या पुलिस के सिपाही। दोनों ओर से भाइयों के बीच गोलियां चलती हैं।
इस नई महाभारत में सिविल समाज धृतराष्ट्र की तरह है। अमेरिका शकुनि की तरह। गरीब और आदिवासी लगभग द्रौपदी की तरह। शासन दु:शासन की तरह। पुलिस द्रोणाचार्य की तरह। नक्सली जयद्रथ की तरह। ग्रीनहंट बनाम लालक्रांति कुरुक्षेत्र के मैदान की तरह। लेखक बड़े-बड़े अखबारों और दूरदर्शन के चैनलों में नौकरी पर हैं। स्वास्थ्य सेवाएं बदतर हैं। आदिवासी ने सभ्यों के आगे बढ़कर स्वास्थ्य को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक अर्थों में बूझा है। उसका औषधि विज्ञान पश्चिमी विज्ञान से अपरिचित, अछूता और अन्य रहा है। शक नहीं कि धरती पर विज्ञान, अणु और तकनीकी के कई विस्फोटों के कारण मनुष्य की बीमारियों से लड़ने की ताकत आधुनिक दवाइयों पर निर्भर होती जा रही है। आदिवासी इन दवाओं से महरूम होता है-आदत, नीयत और सुविधाहीनता के कारण। पर्यावरण के विनाश से उत्पन्न कुपोषण, चिकित्सा सुविधाओं के अभाव, स्वच्छता अभियानों की निरर्थकता आदि के कारण आदिवासियों की रोग निरोधक क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है और जीवन की आयु भी। गर्भवती स्त्री और शिशु मृत्यु दर भी उनमें ज्यादा है।
मलेरिया, तपेदिक, प्लेग जैसी घातक बीमारियों ने पहले ही उनका बहुत नुकसान किया है। मानव अधिकारों के विश्वव्यापी भोंपू बजने के बावजूद मैदानी हकीकत यही है कि आदिवासियों के खिलाफ हिंसा, क्रूरता, नीतिविहीनता, हाशियाकरण, भूमि से विस्थापन, भू अधिकारों का निषेध, औद्योगीकरण के अभिशाप, पुलिसिया ताकतों द्वारा उत्पीड़न, नक्सली उत्प्रेरण, और इसी तरह के अन्य प्रकोप सभ्य समाज और सरकारों की ओर से कायम हैं। आदिवासी विरोध करते हैं तो उनके लिए स्थायी विशेषण नक्सलवादी सरकारी किताब में पहले से मुद्रित है। उनके मरहूम होने से आश्रितों को आर्थिक मदद या नौकरी का भी सरकारों पर बोझ नहीं है। ऐतिहासिक अन्याय, आधुनिक राष्ट्र राज्य के पश्चिमी चोचले, बाजारवाद, नागरिक समाज की कायर उदासीनता के कारण आदिवासियों का थोकबंद पलायन और जंगलों का विनाश, शोषण और खनिजों का उत्खनन किसी भी कल्याणकारी राज्य की छाती पर विक्टोरिया क्रॉस तो टांग सकता है, उसे सर्वोच्च पद्म पुरस्कारों का वारिस भी बनाता है।
व्यापारियों और उद्योगपतियों ने खनिजों के अतिरिक्त चार, चिरौंजी, कत्था, तीखुर, तेंदूपत्ता, महुआ, लकड़ी जैसे वन उत्पादों पर सफलतापूर्वक डाका डालना शुरू किया। आदिवासी टुकुर-टुकुर देखता रहा। सरकारी कारिंदे डकैतों की रक्षा करते कमीशन लेते रहे। शिक्षक सुदूर गांवों में पढ़ाने नहीं जाता। विधायकों का निजी सचिव और सलाहकार बन जाता है। सरकार ने हाईकोर्टों तक में हलफनामा दायर किया है कि आदिवासी इलाकों में कितनी भी कोशिश करें डॉक्टर कार्यभार ग्रहण नहीं करते। सड़कों की हालत पगडंडियों से ज्यादा खराब रही है। शराब बनाने के पुश्तैनी सांस्कृतिक अधिकारों को छीनकर देसी विदेशी शराबों के ठेकों का जंगल उगाया गया। आबकारी मंत्री विधानसभा में फरमाते रहे हमें गौरव है कि हमने शराब ठेकों के जरिए कमाई का राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया है। आदिवासी बालाओं और हस्तशिल्प के उत्पादन वगैरह के चित्र देसी विदेशी पर्यटकों को भेंट देने के अतिरिक्त प्रमुख शहरों की सड़कों के किनारे और सरकारी कैलेंडरों, डायरियों वगैरह में चस्पा करने को सांस्कृतिक क्रांति कहा जा रहा है।
पटवारियों के रिकॉर्ड में अधिसंख्या आदिवासी जमीनों के कब्जे या तो नदारद हैं या अतिक्रमित हैं। पुलिस को देखते ही आदिवासी भागते हैं कि उनकी स्त्रियां, मुर्गियां और बकरियां बचा ली जाएं। नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन जैसे सरकारी कारखाने के इतिहास की छाती और अफसरों की जेबें इस गर्व से फूल रही हैं कि वहां लौह अयस्क का रिकॉर्ड उत्पादन होकर उसे जापान जैसे कई विदेशी मुल्कों को सीधे बेचा जा रहा है। उससे विकास का कोई सीधा संबंध आदिवासी से नहीं होता।
वनों को तबाह करने के लिए शाल वृक्षों को काटकर पाइन या देवदार के पेड़ लगाने की कुटिल योजना लगभग सफल होने की स्थिति में आ गई थीं, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसे रद कर दिया। आदिवासी इलाकों में मंत्री तो दूर विधायकों तक को दौरा करने से परहेज होता है। कलेक्टरों सहित बड़े जिलाधिकारी वार्षिक आयोजनों की तरह दिखाई देते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। )
Sign in
Welcome! Log into your account
Forgot your password? Get help
Password recovery
Recover your password
A password will be e-mailed to you.