लोकतंत्र सिर्फ चुनाव नहीं होता। वह नियमित जनता की आवाज होता है। उसका हित साधने का माध्म होता है। यह बात भाजपा और जनसंघ के संस्थापक सदस्य रहे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कही थी। अब उनके उत्तराधिकारी सिर्फ चुनाव मंत्री बनकर रह गये हैं। वह जनता की आवाज नहीं सुनते बल्कि अपने मन की बात थोपते हैं। यह बात आरटीआई में मिले जवाब से साबित हो गई, जिसमें बताया गया कि कृषि सुधार के नाम पर तीनों कानूनों को बनाने के पहले किसी भी किसान संगठन से कोई चर्चा नहीं की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी मंत्री लगातार यह दावा करते आये हैं कि ये कानून लाने के पहले किसानों से सरकार ने चर्चा की थी। किसान पिछले सवा महीने से भारी ठंड में दिल्ली सीमा पर बैठे हैं मगर सरकार बेशर्मी से वातानुकूलित कमरों में ऐश कर रही है। वह नेताओं से बात करने नहीं जाती बल्कि उन्हें बसों में भरकर अपनी सुविधानुसार लाती है। नागरिकों के सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले यह राजनेता अपनी बात मनवाने के लिए किसानों पर दबाव बनाते हैं। जब किसान उनकी नहीं सुनते तो उनके प्रति देशवासियों में घृणा का भाव उत्पन्न करते हैं। उन्हें कभी खालिस्तानी तो कभी पाक-चीन पोषित बताते हैं। इस आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बताने से भी वो नहीं चूकते। वो किसानों में विभाजन कराने के लिए तमाम साजिशें रचते हैं। कट्टरता की विचारधारा से भरी सरकार आंदोलनकारियों के धर्म, संस्कृति और सहकार का भी मजाक बनाती है। चाटुकार मीडिया के जरिए वह किसानों का चरित्र हनन करती है। जन आंदोलन बन चुके, किसानों के इस संघर्ष में अब तक 55 किसान अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। हाड़ कंपाती इस ठंड में किसान एक कंबल लिये संघर्ष कर रहा है और प्रधानमंत्री वातानुकूलित कमरे में आधा दर्जन गर्म कपड़ों से लदे अपने मन की बात करने में व्यस्त हैं।
सरकार अपने मंत्रियों, नेताओं, प्रवक्ताओं से ही नहीं बल्कि तमाम नौकरशाहों और आयोगों के सदस्यों से भी तीनों विवादास्पद कृषि सुधार कानूनों के पक्ष में अखबारों में लेख छपवा रहे हैं। न्यूज चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक में उसकी मुहिम इन कानूनों को सही बताने की है। सरकार आंदोलनकारी किसानों को भ्रमित से लेकर भूमि हड़पने वाला तक बताने में लगी है। उसने विश्वविद्यालयों में तैनात किये गये संघ बैकग्राउंड के आठ कुलपतियों सहित 866 लोगों से खुद को ही चिट्ठी लिखवाई है कि सरकार के बनाये यह कानून किसानहित में हैं। विशेषज्ञों का माना है कि सरकार किसानों को किसानों से ही नहीं देश के नागरिकों से भी लड़ाना चाहती है। उनमें विघटन कराकर वह अपने मनमाफिक कानूनों को लागू रखना चाहती है। वह ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि किसानी भले ही किसान के लिए मुनाफे का सौदा न हो मगर कुछ पूंजीपतियों के लिए यह सोने का अंडा देने वाला धंधा है। यह पूंजीपति सत्तारूढ़ दल के वित्तीय पोषक हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस सरकार ने पहले कभी कोई कानून रद्द न किया हो। मोदी सरकार ने दर्जनों कानूनों को रद्द भी किया है और उनमें बदलाव भी किये हैं। इन कानूनों को मनवाने के लिए वह ऐसे अड़े हैं, जैसे उनकी विरासत छिन रही हो। हालात यह हैं कि बीता वर्ष 2020 आंदोलन से शुरू हुआ था और आंदोलन पर ही खत्म हो गया। 2020 की शुरुआत नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिए नागरिकों में भेदभाव और हक मारने वाले कानून के विरोध से हुई थी, जिसको खत्म करने के लिए भी घृणा, विघटन और कट्टरता का सहारा लिया गया था और अब फिर वही हो रहा है। सरकारी संस्थाओं का भी इसमें नियमित इस्तेमाल हो रहा है।। साल खत्म होने के वक्त भी ठिठुरती ठंड में किसान सड़कों पर है मगर उसे इंसाफ मिलता नहीं दिख रहा।
आपको याद होगा कि सुशांत सिंह आत्महत्या प्रकरण में बॉलीवुड को इस कदर सरकारी संस्थाओं ने बदनाम किया कि उनके प्रति घृणा और विघटन उत्पन्न हुआ। कट्टरता का चेहरा भी देखने को मिला। मीडिया संभाल रहे सरकार के कैडर बन चुके एंकर, संपादक और मालिक इस आग में घी डालने का काम कर रहे थे। बिहार चुनाव में इसको सत्ता के लिए खूब भुनाया गया। सरकार की अनदेखी और हठधर्मिता से तंग किसानों ने अब अपने आंदोलन को गति देने के लिए मॉल, पेट्रोल पंप और कुछ अन्य राजमार्गों को बंद करने की रणनीति तय की है। यही नहीं किसानों ने 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च करने की भी चेतावनी दी है। मोदी सरकार के हठ के खिलाफ केरल सरकार जब सदन में इन तीनों कानूनों का विरोध प्रस्ताव लाई तो भाजपा के विधायक ने भी उनका साथ दिया और प्रस्ताव पास हो गया। पिछला साल इतिहास में दर्ज हो गया है। यह न सिर्फ़ कोविड-19 महामारी की वजह से, बल्कि भारतीय किसानों के एक अनुशासित और व्यवस्थित आंदोलन के लिए भी याद किया जाएगा। शाहीनबाग आंदोलन भी एक नजीर बना था। पिछले कई दशकों के दौरान लोगों ने भारत में ऐसे आंदोलन नहीं देखे थे। बहराल, किसान अभी भी उम्मीद पाले हैं कि शायद सरकार में बैठे उनके नुमाइंदों को सद्बुद्धि आये और वो अपना तानाशाहीपूर्ण रवैय्या छोड़कर उनकी बात को सुनेंगे और समझेंगे। अन्नदाता को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ने के बजाय उनकी मांगों के अनुरूप उनके हित में फैसले लेंगे। लोकतंत्र के वास्तविक मोल को समझना होगा। अगर सरकार इसे नहीं समझी तो तय है कि आने वाले वक्त में जनता उसे माकूल जवाब देगी। सरकार को चाहिए कि वह किसानों को नववर्ष का तोहफा उनकी सभी मांगों को मानकर दे।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)