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Anger of Dodge and the Hajong tribe: चकमा और हाजोंग जनजाति का गुस्सा

अरुणाचल प्रदेश में छह दशक से ज्यादा समय से रहने वाले चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठन राज्य की मतदाता सूची में नाम शामिल नहीं किए जाने के आरोप में आंदोलन की राह पर हैं। चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठनों का कहना है कि तमाम जरूरी और वैध दस्तावेज जमा करने के बावजूद चुनाव आयोग ने बिना कोई कारण बताए बहुत से लोगों के आवेदनों को खारिज कर दिया है। इन जनजातियों के 18 साल से ज्यादा उम्र के हजारों मतदाता हैं। डीडब्ल्यू के अनुसार, हाल में एक सरकारी सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि राज्य में इन दोनों जनजातियों के महज 5,097 लोगों को ही मतदान का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2015 में इन लोगों को नागरिकता देने का निर्देश दिया था। लेकिन अब तक यह मामला कानूनी दाव-पेंच और लालफीताशाही में उलझा है। चकमा और हाजोंग तबके के लोगों को नागरिकता या जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है। राज्य में पेमा खांडू के नेतृत्व वाली सरकार की दलील रही है कि इन शरणार्थियों को नागरिकता देने की स्थिति में स्थानीय जनजातियां अल्पसंख्यक हो जाएंगी।
अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हाजोंग जनजाति के मुद्दे पर विवाद काफी पुराना है। करीब छह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में इन दोनों जनजातियों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का निर्देश दिया था। लेकिन उसके बावजूद यह मुद्दा अब तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है। अरुणाचल प्रदेश के स्थानीय संगठन इन जनजातियों को राज्य से खदेड़ने की मांग करते रहे हैं। आखिर यह जनजातियां कहां से आई और इनके मुद्दे पर विवाद क्यों है? इसके लिए कोई छह दशक पीछे जाना होगा। यह दोनों जनजातियां देश के विभाजन के पहले से चटगांव की पहाड़ियों (अब बांग्लादेश में) रहती थीं. लेकिन 1960 के दशक में इलाके में एक पनबिजली परियोजना के तहत काप्ताई बांध के निर्माण की वजह से जब उनकी जमीन पानी में डूब गई तो उन्होंने पलायन शुरू किया। चकमा जनजाति के लोग बौद्ध हैं जबकि हाजोंग जनजाति हिंदू है। देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भी उनको धार्मिक आधार पर काफी अत्याचर सहना पड़ा था। साठ के दशक में चटगांव से भारत आने वालों में से महज दो हजार हाजोंग थे और बाकी चकमा। यह लोग तत्कालीन असम के लुसाई पर्वतीय जिले (जो अब मिजोरम का हिस्सा है) से होकर भारत पहुंचे थे। उनमें से कुछ लोग तो लुसाई हिल्स में पहले से रहने वाले चकमा जनजाति के लोगों के साथ रह गए, लेकिन सरकार ने ज्यादातर शरणार्थियों को अरुणाचल में बसा दिया और इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया गया।
आपको बता दें कि अक्साई चिन, उत्तर पश्चिम में भारत-चीन सीमा पर स्थित तिब्बती पठार का विवादित क्षेत्र है। वर्तमान में यह चीन के कब्जे में हैं। साल 2017 में चीन ने भारत-चीन विवाद समझौते के मद्देनजर कहा था कि अगर भारत, अरुणाचल प्रदेश का तवांग क्षेत्र चीन को देता है तो वह अक्साई चिन के अपने कब्जे वाला एक हिस्सा भारत को दे सकता है। चीन तवांग को दक्षिणी तिब्बत कहता है। वर्ष 1972 में भारत और बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के साझा बयान के बाद केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम की धारा 5 (आई)(ए) के तहत इन सबको नागरिकता देने का फैसला किया। लेकिन तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेशन (नेफा) सरकार ने इसका विरोध किया। बाद में यहां बने अरुणाचल की सरकार ने भी यही रवैया जारी रखा। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि वह बाहरी लोगों को अपने इलाके में बसने की अनुमति नहीं दे सकती। अनुमति देने की स्थिति में राज्य में आबादी का अनुपात प्रभावित होगा और सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा।
अरुणाचल प्रदेश के इलाके को वर्ष 1972 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था। वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद अखिल अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) ने चकमा व हाजोंग समुदाय के लोगों को राज्य में बसाने की कवायद के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया। आप्सू का यह विरोध अब तक जारी है। इस दौरान शरणार्थियों की तादाद लगातार बढ़ती रही। वर्ष 1964 से 1969 के दौरान राज्य में जहां इन दोनों तबके के 2,748 परिवारों के 14,888 शरणार्थी थे वहीं 1995 में यह तादाद तीन सौ फीसदी से भी ज्यादा बढ़ कर साठ हजार तक पहुंच गई। फिलहाल राज्य में इनकी आबादी करीब एक लाख तक पहुंच गई है। चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने के विरोध में अरुणाचल चकमा स्टूडेंट्स यूनियन समेत कई अन्य संगठनों ने आंदोलन शुरू किया है। इटानगर में जारी एक बयान में यूनियन ने कहा है कि हाल में नेशनल वोटर्स डे मनाया गया है। लेकिन अरुणाचल में दशकों से रहने वाले चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के लिए यह बेमानी है। हजारों नए वोटरों के आवेदन बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिए गए हैं। चकमा यूथ फेडरेशन का आरोप है कि तमाम जरूरी दस्तावेज संलग्न करने के बावजूद चुनाव अधिकारियों ने बिना कोई कारण बताए हजारों आवेदनों को खारिज कर दिया है। हमारे तबके के हजारों युवकों ने 18 साल की उम्र होने के बाद बीते साल नवंबर-दिसंबर के दौरान मतदाता सूची में संशोधन के लिए चलाए गए विशेष अभियान के दौरान आवेदन किया था। इनमें से महज कुछ लोगों के नाम ही शामिल किए गए।
विदित है कि पूर्वोत्तर के अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले राज्य अरुणाचल में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (उल्फा) के परेश बरुआ वाले स्वाधीन (आई) गुट की ओर से एक तेल कंपनी के दो कर्मचारियों के अपहरण और उनकी रिहाई के बदले 20 करोड़ की फिरौती मांगने की घटना पूर्वोत्तर के लिए खतरे की घंटी है। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नागालैंड (एनएससीएन), उल्फा के अरविंद राजखोवा गुट और बोडो उग्रवादी संगठनों के साथ जारी शांति प्रक्रिया की वजह से बीते कुछ बरसों से इलाके में उग्रवादी गतिविधियों पर काफी हद तक अंकुश लगा था। अब इस ताजा घटना ने इलाके में अस्सी और नब्बे के दशक के उस दौर की यादें ताजा कर दी हैं जब पैसों के लिए खासकर चाय बागान मैनेजरों व मालिकों के अलावा तेल व गैस कंपनियों के अधिकारियों का अपहरण रोजमर्रा की घटना बन गई थी। उस समय तमाम निजी और सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों में भारी आतंक था। लोग इलाके में नौकरी करना ही नहीं चाहते थे। उस दौर में सैकड़ों कंपनियों ने अपना कारोबार समेट लिया था। अब एक बार फिर इस ताजा घटना से इलाके में खासकर बाहरी लोगों में भारी आतंक फैल गया है। यूं कहें कि अब अरुणाचल भी अशांत होने की कगार पर है। देखना यह है कि होता क्या है?
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