अंबाला। भारतीय लोकतंत्र का इतिहास बड़ा ही रोचक है। यादों के समुद्र में जब आप गोता लगाते हैं तो एक से बढ़कर एक रोचक और मजेदार फैक्ट्स सामने आते हैं। वैसे तो ये फैक्ट्स भारतीय राजनीति के इतिहास में कई बार लिखे और बताए गए हैं, पर जब-जब चुनावी मौसम आता है इन यादों की तासीर और रुमानी हो जाती है। हर बार इन्हें पढ़ने, जानने और समझने का अपना ही मजा होता है। आज समाज का प्रयास कर रहा है आपको ऐसे ही यादों में गोते लगवाने का। आज बात एक ऐसे चुनाव कि जिसमें कोई विपक्ष ही नहीं था।
-जब भारत का संविधान लिखा गया और उसके बाद पहला चुनाव 1952 में हुआ तो इस चुनाव में एकछत्र राज कांग्रेस का रहा। उस वक्त भी कोई विपक्ष नहीं था।
– जब 1957 में लोकसभा का दूसरा चुनाव हुआ तो उम्मीद थी कि भारतीय लोकतंत्र को विपक्ष जरूर मिलेगा। पर आश्चर्यजनक यह रहा कि इस चुनाव में भी देश को विपक्ष नहीं मिल सका
-1957 के चुनाव का दिलचस्प पहलू यह रहा कि पहले आम चुनाव की तरह इस बार भी चुनाव के बाद जो लोकसभा गठित हुई उसमें उसमे किसी एक विपक्षी दल को इतनी सीटें भी नहीं मिल पाई कि उसे सदन में आधिकारिक विपक्षी दल की मान्यता दी जा सके।
-इस कारण सदन बिना नेता विरोध दल के ही रहा। जबकि 1957 में कई क्षेत्रीय दल अस्तित्व में आ चुके थे। पर इन्हें वोटर्स की नजर में मान्यता नहीं मिल सकी।
-कांग्रेस और नेहरू का जादू ऐसा चला कि न केवल कांग्रेस की बहुमत की सरकार बनी, बल्कि सदन बिना विपक्ष के ही चला।
16 पार्टियां थीं मैदान में, दो पहुंचे दहाई अंक में
चुनाव में एक तरफ कांग्रेसी, दूसरी तरफ वामपंथी- समाजवादी और दक्षिणपंथी पार्टियां- भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय हिंदू महासभा एवं अखिल भारतीय राम राज्य परिषद अपने-अपने उम्मीदवारों के साथ मैदान में डटी थीं। भारतीय जनसंघ इस चुनाव में भी उस तरह कमाल नहीं कर पाई और उसके खाते में पहले आम चुनाव से सिर्फ एक सीट ही ज्यादा आई। 1957 के दूसरे आम चुनाव में सिर्फ दो ही पार्टियां दहाई का आंकड़ा छू पाईं। ये दो कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी थीं। यह चुनाव इन 17 राज्यों के 403 निर्वाचन क्षेत्रों की 494सीटों पर हुआ था। चुनाव में 16 पार्टियों और कई सौ निर्दलीय उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया था।