गगन बावा, गुरदासपुर :
गांव हयातनगर निवासी 72 वर्षीय जसबीर सिंह काहलों का जज्बा इस उम्र के पड़ाव में पहुंचने के बावजूद जवानों से कहीं ज्यादा है। वह अब तक 194 बार रक्तदान कर चुके हैं। साल 1971 से शुरू हुआ रक्तदान का यह सिलसिला अब तक जारी है। हालांकि डाक्टरों द्वारा उनकी बढ़ती उम्र को देखते हुए अब उन्हें रक्तदान करने से मना किया गया है, जबकि उनका दिल डाक्टरों की सलाह नहीं मानता, जिसके चलते अभी भी वे रक्तदान करने चले जाते हैं। इसके अलावा वह मरणोपरांत अपना शरीर और आंखें भी दान कर चुके हैं। यही नहीं वह पिंगलवाड़ा और एसजीपीसी का धार्मिक साहित्य भी बांटते हैं। अब तक उन्हें कई संस्थाएं सम्मानित कर चुकी हैं। उन्हें भाई घनैय्या अवार्ड, सेहत विभाग, मानवाधिकार सुरक्षा ब्यूरो और एसबीटीसी से स्टेट अवार्ड मिल चुका है।
गुरु साहिब के वचनों पर चलने का प्रण :
जसबीर सिंह लोगों के लिए पर्यावरण के प्रति प्रेम की मिसाल भी कायम कर रहे हैं। वह श्री गुरु नानक देव जी के वचनों पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत्त पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। गुरु जी ने अपनी वाणी में पर्यावरण की संभाल का संदेश दिया था, जिस पर वह एक मिशन की तरह काम कर रहे हैं। किसी पैलेस में शादी समारोह हो या कोई अन्य कार्यक्रम वह वहां प्रयोग कर फेंके गए पानी के खाली गिलास एकत्र करते हैं और उन्हें घर ले जाकर उनमें पौधे तैयार करते हैं। यह सिलसिला करीब 14 साल से निरंतर चल रहा है। घर में वेस्ट गिलासों में तैयार पौधों को वह सरकारी, गैर-सरकारी स्कूलों, धार्मिक स्थलों और खासकर ग्रामीण मेलों में लोगों फ्री बांट देते हैं और साथ ही पर्यावरण को बचाने का भी संदेश देते हैं। यही नहीं लोगों को इन पौधों के महत्व के बारे में भी जानकारी देते हैं। उनका कहना है कि प्राकृति की सेवा से बढ़कर कुछ नही हो सकता और उनका जीवन इसी की सेवा को समर्पित है। खास बात यह है कि गांव की अपनी जमीन पर वह खुद पौधे उगाते हैं और उन्हें अपने खर्च पर हर जगह पहुंचाते हैं। कभी-कभार इस सेवा के बदले उन्हें कोई पैसा दे देता है, जिसे वह फिर से पौधों के पालन-पोषण में लगा देते हैं।
पिता से मिली प्रेरणा :
काहलों ने बताया कि उनके पिता साधू सिंह और दादा झंडा सिंह का बंटवारे से पहले बूढ़ा ढल्ला (अब पाकिस्तान) में फलों का बाग था। बंटवारे के बाद उनका परिवार हयात नगर में आकर बस गया। यहां पर उनके दादा ने फिर से जमीन लेकर फालसा का बाग तैयार किया। इस दौरान उनके पिता सेना में भर्ती हो गए। वहां से रिटायर्ड होने के बाद उन्होंने भी बाग की देखभाल शुरू कर दी। इन्हें पौधों की सेवा करते देख उनके मन में भी पर्यावरण के प्रति प्रेम पैदा हो गया। बस फिर क्या था उन्होंने भी बचपन से ही ठान लिया कि प्राकिृत मां की सेवा करनी है। साल 1991 में शुगर मिल बटाला से रिटायर्ड होने के बाद उन्होंने लोगों को फ्री पौधे बांटने का काम शुरू किया, जो आज तक जारी है। वह हर साल विभिन्न स्थानों पर करीब 10 हजार पौधे बांटते हैं।
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