पिछले सप्ताह हम श्रीलंका में थे। वहां जाने के पहले श्रीलंका के लिए बहुत उत्साह नहीं था। कोलंबो पहुंचने के बाद वहां की जो व्यवस्थायें देखीं, उसके बाद उत्साहित हुआ। रात ही फील्ड स्टडी में निकल पड़ा। कुछ माह पीछे हुए आतंकी हमलों और धमकियों के कारण अहम स्थानों पर पुलिस बेहद सतर्क दिखी मगर आम आदमी को परेशानी हो, ऐसी पुलिसिंग नहीं थी। होटल्स और रेस्टोरेंट्स के लिए कुछ हिदायतें थीं, जिनका पालन हो रहा था। सुबह समुद्र के किनारे सैर करते वक्त मुंबई के ‘बीच’ जेहन में थे। कोलंबो और मुंबई दोनों विश्व के अहम शहर हैं मगर दोनों की व्यवस्थाओं और स्वच्छता में जमीनी अंतर था। जहां कोलंबो के बीच सुंदर और सुव्यवस्थित थे, वहीं मुंबई के बीच अव्यवस्थित और गंदगी से पटे हैं। बीच के दूसरी तरफ हमारा होटल था। हम जब बीच से होटल आने लगे तो रोड पर तेज रफ्तार गाड़ियां गुजर रही थीं। हमने रोड पर पांव आगे बढ़ा दिया था, तो सभी गाड़ियां रुक गईं और हमें रोड पार करने का इशारा किया। हमारे स्थानीय मित्रों ने बताया कि यह यहां की तहजीब है कि पैदल चलने वालों को पहले सुरक्षित निकलने का अवसर देते हैं। हमारे यहां क्या होता है, हम सब जानते हैं।
रात में हम श्रीलंका के हिल स्टेशन ‘न्यूरो लिया’ की पहाड़ियों से गुजर रहे थे। हमने देखा कि कई स्थानों पर महिलायें अकेले ही चली जा रही हैं। जंगली और पहाड़ी इलाकों में भी महिलायें बेखौफ हैं। हमारे लिए आश्चर्यजनक था। अनायास ही हमने स्थानीय मित्र मेजर जयंथा बंडारा से पूछ लिया कि इतनी रात में अकेली महिला सुरक्षित है? उन्होंने हमसे उलट सवाल कर लिया, क्यों क्या वह इंसान नहीं है? अपनी बात को विस्तार देते हुए वह बोले कि महिलाओं को मानसिक रोगियों और जानवरों से खतरा है, शेष किसी से नहीं। श्रीलंका में स्वच्छता के लिए आमजन से सेस नहीं वसूला जाता है। कूड़ा उठाने वाले को भी फीस नहीं देनी पड़ती है। देश को स्वच्छ रखना सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी है। बच्चों को पढ़ाई के लिए कोई खर्च नहीं करना पड़ता, वे जितना चाहें पढ़ें। सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा और अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध है। एक पाकिस्तानी पत्रकार को वहां डेंगू हो गया, वह चिंतित था मगर सरकारी अस्पताल में बेहतरीन चिकित्सा मिली, वो भी बगैर किसी खर्च के। हम कतरगामा देवालय गये, जहां भगवान कार्तिकेय अपनी दोनों पत्नियों के साथ विराजमान हैं। यहां हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध समान रूप से आते हैं। श्रीलंका में 71 फीसदी आबादी बौद्ध हैं। यह सामाजिक और धार्मिक सद्भाव हमें उनसे सीखने की प्रेरणा देता है।
हमारी वहां के कुछ पत्रकारों और शिक्षकों से चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि उनका देश महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को याद करता है। उन्होंने हमारे देश को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की और शांति का संदेश दिया। यहां के लोग सामान्य तौर पर सरल और मददगार हैं। किसी मैट्रो सिटी में हमने नहीं देखा था कि आप किसी से रास्ता पूछें और वह आपको वहां तक छोड़कर आये। हमारे एक साथी को चलने में समस्या हुई। रात के वक्त कोई साधन नहीं था, तो एक आटो चालक ने उन्हें पहुंचाया और किराया तक लेने से मना कर दिया। लोग मानवता और प्राकृतिक सौंदर्य की रक्षा के प्रति सजग हैं। यही कारण है कि वहां बगैर किसी सरकारी डंडे के हरियाली और स्वच्छता नजर आती है। हम पुलिस स्टेट बनने की दशा में ही कुछ सकारात्मक करते हैं, अन्यथा हमारी आदत दूसरों का हक मारने की अधिक होती है। छोटा सा गरीब राष्ट्र जो अपने विशाल हृदय के कारण भारत के किसी भी बड़े राज्य से बेहतर करने को आतुर है। यही वजह है कि वहां खुशियां हमसे अधिक हैं और प्रकृति ने भी उन्हें भरपूर दिया है।
हम जब दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे तो पता चला कि एक यूरोपियन सांसदों का दल भारत भ्रमण पर आ रहा है। इस दल के आने का कारण पता किया तो बताया गया कि वह कश्मीर में जाकर वहां के लोगों का हालचाल लेगा और जानेगा कि अनुच्छेद 370 के कुछ खंड खत्म करने से वहां के लोगों पर क्या फर्क पड़ा। दो दिन बाद पता चला कि यूरोपियन यूनियन ने तो ऐसा कोई दल भेजा ही नहीं। यह तो एक लाइजनिंग करने वाली एक महिला माडी शर्मा का प्रायोजित कार्यक्रम है। सवाल इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि भारतीय सांसदों को कश्मीर के हाल जानने की इजाजत ही नहीं और विदेशी घूमकर ब्रीफिंग लेंगे। जब भेद खुला तो सरकार पर भी सवाल उठने लगे कि वह अपनी छवि बनाने के लिए किस तरह के स्टंट कर रही है। अगर लोगों में खुशियां होंगी और वे सुखी महसूस करेंगे तो किसी को बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसे कि श्रीलंका जैसे गरीब देश में भी लोगों से खुशियों पर सवाल की जरूरत नहीं पड़ी। कश्मीर को सहनुभूतिपूर्ण इलाज की जरूरत है, न कि पुलिस स्टेट बनाकर, डराकर उसे शांति और सौहार्दपूर्ण राज्य बताने की। हम यूपी की यात्रा पर भी गये। कई बार हम खुद को असुरक्षित महसूस करते रहे। दिल्ली से लेकर वाराणसी तक हमने सड़क मार्ग से यात्रा की। यहां पुलिस एक खौफ के रूप में नजर आई। अमेठी में एक व्यापारी सत्य प्रकाश शुक्ल को पुलिस वालों ने मार डाला। पुलिस वालों ने उसे एक सप्ताह तक अवैध हिरासत में रखकर पीटा। उसके परिवार से 13 लाख रुपये रिश्वत मांगी, नहीं दी तो इतना पीटा कि वह मर गया। कुछ इसी तरह की एक शिकायत वाराणसी में मिली मगर यहां युवक की जान बच गई। लखनऊ में भी ऐसी ही एक घटना का पता चला। पुलिस थाने वसूली का अड्डा बन गये हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की वह टिप्पणी हमें याद आती है जिसमें कहा गया था कि यूपी पुलिस संगठित अपराधियों का गिरोह है। यूपी में जितना खतरा अपराधियों से है, उससे अधिक पुलिस से दिखता है। यहां पुलिस मित्र की भूमिका में न होकर शोषक की तरह नजर आने लगी है। आखिर हम उन देशों से क्यों नहीं सीखते जो हमसे छोटे हैं और उनके यहां संसाधनों की बेहद कमी है मगर सरकार पुलिस स्टेट बनकर नहीं चलती। लोगों के मन में अपनी सरकार और सियासतदां के प्रति प्यार और सम्मान है। वाराणसी में गंदगी के अंबार और अव्यवस्था को देखकर मन दुखी हुआ।
यह तो हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है। यहां को सुव्यवस्था होनी चाहिए थी मगर नहीं दिखी। इस वक्त हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसमें आवश्यकता होड़ की नहीं बल्कि सच्चे लोकतंत्र को स्थापित करने की है। हमें झूठ और प्रपंच के आधार पर खुद को सबसे अच्छा साबित करने से बचना होगा। हमें बाई डिफाल्ट सरकार नहीं चाहिए, बल्कि बाई च्वाइज चाहिए। जैसा प्यार और सम्मान गांधी-नेहरू को उस वक्त की आवाम देती थी, वही सम्मान हमारे नेताओं को मिलेगा, जब वे वास्तव में जनता के लिए तंत्र का प्रयोग करेंगे, न कि तंत्र के लिए जनता का। यही वजह है कि जब हम विश्व के तमाम देशों में जाते हैं तो लोग नेहरू-गांधी के आदर्शों को दोहराते हुए हमें उनके देश का होने के कारण सम्मान देते हैं। छोटों से ही सीखिये और आगे बढ़िये।
रात में हम श्रीलंका के हिल स्टेशन ‘न्यूरो लिया’ की पहाड़ियों से गुजर रहे थे। हमने देखा कि कई स्थानों पर महिलायें अकेले ही चली जा रही हैं। जंगली और पहाड़ी इलाकों में भी महिलायें बेखौफ हैं। हमारे लिए आश्चर्यजनक था। अनायास ही हमने स्थानीय मित्र मेजर जयंथा बंडारा से पूछ लिया कि इतनी रात में अकेली महिला सुरक्षित है? उन्होंने हमसे उलट सवाल कर लिया, क्यों क्या वह इंसान नहीं है? अपनी बात को विस्तार देते हुए वह बोले कि महिलाओं को मानसिक रोगियों और जानवरों से खतरा है, शेष किसी से नहीं। श्रीलंका में स्वच्छता के लिए आमजन से सेस नहीं वसूला जाता है। कूड़ा उठाने वाले को भी फीस नहीं देनी पड़ती है। देश को स्वच्छ रखना सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी है। बच्चों को पढ़ाई के लिए कोई खर्च नहीं करना पड़ता, वे जितना चाहें पढ़ें। सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा और अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा उपलब्ध है। एक पाकिस्तानी पत्रकार को वहां डेंगू हो गया, वह चिंतित था मगर सरकारी अस्पताल में बेहतरीन चिकित्सा मिली, वो भी बगैर किसी खर्च के। हम कतरगामा देवालय गये, जहां भगवान कार्तिकेय अपनी दोनों पत्नियों के साथ विराजमान हैं। यहां हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध समान रूप से आते हैं। श्रीलंका में 71 फीसदी आबादी बौद्ध हैं। यह सामाजिक और धार्मिक सद्भाव हमें उनसे सीखने की प्रेरणा देता है।
हमारी वहां के कुछ पत्रकारों और शिक्षकों से चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि उनका देश महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को याद करता है। उन्होंने हमारे देश को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की और शांति का संदेश दिया। यहां के लोग सामान्य तौर पर सरल और मददगार हैं। किसी मैट्रो सिटी में हमने नहीं देखा था कि आप किसी से रास्ता पूछें और वह आपको वहां तक छोड़कर आये। हमारे एक साथी को चलने में समस्या हुई। रात के वक्त कोई साधन नहीं था, तो एक आटो चालक ने उन्हें पहुंचाया और किराया तक लेने से मना कर दिया। लोग मानवता और प्राकृतिक सौंदर्य की रक्षा के प्रति सजग हैं। यही कारण है कि वहां बगैर किसी सरकारी डंडे के हरियाली और स्वच्छता नजर आती है। हम पुलिस स्टेट बनने की दशा में ही कुछ सकारात्मक करते हैं, अन्यथा हमारी आदत दूसरों का हक मारने की अधिक होती है। छोटा सा गरीब राष्ट्र जो अपने विशाल हृदय के कारण भारत के किसी भी बड़े राज्य से बेहतर करने को आतुर है। यही वजह है कि वहां खुशियां हमसे अधिक हैं और प्रकृति ने भी उन्हें भरपूर दिया है।
हम जब दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे तो पता चला कि एक यूरोपियन सांसदों का दल भारत भ्रमण पर आ रहा है। इस दल के आने का कारण पता किया तो बताया गया कि वह कश्मीर में जाकर वहां के लोगों का हालचाल लेगा और जानेगा कि अनुच्छेद 370 के कुछ खंड खत्म करने से वहां के लोगों पर क्या फर्क पड़ा। दो दिन बाद पता चला कि यूरोपियन यूनियन ने तो ऐसा कोई दल भेजा ही नहीं। यह तो एक लाइजनिंग करने वाली एक महिला माडी शर्मा का प्रायोजित कार्यक्रम है। सवाल इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि भारतीय सांसदों को कश्मीर के हाल जानने की इजाजत ही नहीं और विदेशी घूमकर ब्रीफिंग लेंगे। जब भेद खुला तो सरकार पर भी सवाल उठने लगे कि वह अपनी छवि बनाने के लिए किस तरह के स्टंट कर रही है। अगर लोगों में खुशियां होंगी और वे सुखी महसूस करेंगे तो किसी को बताने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसे कि श्रीलंका जैसे गरीब देश में भी लोगों से खुशियों पर सवाल की जरूरत नहीं पड़ी। कश्मीर को सहनुभूतिपूर्ण इलाज की जरूरत है, न कि पुलिस स्टेट बनाकर, डराकर उसे शांति और सौहार्दपूर्ण राज्य बताने की। हम यूपी की यात्रा पर भी गये। कई बार हम खुद को असुरक्षित महसूस करते रहे। दिल्ली से लेकर वाराणसी तक हमने सड़क मार्ग से यात्रा की। यहां पुलिस एक खौफ के रूप में नजर आई। अमेठी में एक व्यापारी सत्य प्रकाश शुक्ल को पुलिस वालों ने मार डाला। पुलिस वालों ने उसे एक सप्ताह तक अवैध हिरासत में रखकर पीटा। उसके परिवार से 13 लाख रुपये रिश्वत मांगी, नहीं दी तो इतना पीटा कि वह मर गया। कुछ इसी तरह की एक शिकायत वाराणसी में मिली मगर यहां युवक की जान बच गई। लखनऊ में भी ऐसी ही एक घटना का पता चला। पुलिस थाने वसूली का अड्डा बन गये हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की वह टिप्पणी हमें याद आती है जिसमें कहा गया था कि यूपी पुलिस संगठित अपराधियों का गिरोह है। यूपी में जितना खतरा अपराधियों से है, उससे अधिक पुलिस से दिखता है। यहां पुलिस मित्र की भूमिका में न होकर शोषक की तरह नजर आने लगी है। आखिर हम उन देशों से क्यों नहीं सीखते जो हमसे छोटे हैं और उनके यहां संसाधनों की बेहद कमी है मगर सरकार पुलिस स्टेट बनकर नहीं चलती। लोगों के मन में अपनी सरकार और सियासतदां के प्रति प्यार और सम्मान है। वाराणसी में गंदगी के अंबार और अव्यवस्था को देखकर मन दुखी हुआ।
यह तो हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है। यहां को सुव्यवस्था होनी चाहिए थी मगर नहीं दिखी। इस वक्त हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसमें आवश्यकता होड़ की नहीं बल्कि सच्चे लोकतंत्र को स्थापित करने की है। हमें झूठ और प्रपंच के आधार पर खुद को सबसे अच्छा साबित करने से बचना होगा। हमें बाई डिफाल्ट सरकार नहीं चाहिए, बल्कि बाई च्वाइज चाहिए। जैसा प्यार और सम्मान गांधी-नेहरू को उस वक्त की आवाम देती थी, वही सम्मान हमारे नेताओं को मिलेगा, जब वे वास्तव में जनता के लिए तंत्र का प्रयोग करेंगे, न कि तंत्र के लिए जनता का। यही वजह है कि जब हम विश्व के तमाम देशों में जाते हैं तो लोग नेहरू-गांधी के आदर्शों को दोहराते हुए हमें उनके देश का होने के कारण सम्मान देते हैं। छोटों से ही सीखिये और आगे बढ़िये।
जयहिंद
ajay.shukla@itvnetwork.com
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)