पूरे देश में कारगिल दिवस के अवसर पर शहीदों को श्रद्धांजलि देकर उनके गौरवमयी बलिदान को याद करते हुए देश के अमर सपूतों के प्रति कृतज्ञता पेश की गयी। प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई को कारगिल दिवस मनाए जाने के अतिरिक्त भी विभिन्न अवसरों पर देश के शहीदों को याद किया जाता है तथा कृतज्ञ राष्ट्र उनकी अमूल्य कुर्बानियों के प्रति आभार व्यक्त करता है। जिस समय देश का कोई सपूत शहीद होता है तथा सेना विभागीय स्तर पर उसके पार्थिव शरीर को शहीद के घर भेजती है उस समय अंतिम संस्कार के वक़्त आम तौर पर कुछ अधिकारी या नेता आदि वहां मौजूद रहकर उसका मान सम्मान करते व तिरंगे में लिपटे शहीद के पार्थिव शरीर को श्रद्धांजलि भेंट करते हैं। इस अवसर पर मीडिया द्वारा शहीद के बारे में,उसके शौर्य,उसकी रुचियाँ उसके परिवार आदि के विषय में समाज को अवगत करता रहता है।
बाद में केंद्र सरकार,राज्य सरकारें तथा सेना अपने अपने स्तर पर शहीदों के माता-पिता तथा उसके बीवी बच्चों को उनके जीवन बसर के लिए सांत्वना स्वरूप नकदी,मकान के लिए प्लाट, पेट्रोल पंप,परिवार के किसी सदस्य को सरकारी सेवा,गैस एजेंसी,पेंशन आदि से नवाजते हैं। इस तरह का सहयोग निश्चित रूप से किसी की जान का बदल तो नहीं हो सकता परन्तु इससे शहीदों के परिजनों को अपनी जिन्दिगी गुजारने में कुछ राहत जरूर मिल जाती है। यदि शहीद शादी शुदा होता है तो सभी की हमदर्दी उसकी पत्नी के साथ सबसे अधिक इसलिए होती है क्योंकि वह विधवा हो गयी, उसका जीवन का सहारा चला गया और यदि बच्चे हैं तो उन बच्चों के पालन पोषण का बोझ उसके कन्धों पर आ गया। इसलिए सरकार यदि सरकारी सेवा देने पर विचार करती है तो पहली प्राथमिकता के आधार पर पत्नी को ही सरकारी सेवा देने के लिए चुना जाता है। नकदी की राशि जरूर पत्नी व माता पिता के बीच बाँट दी जाती है परन्तु पेट्रोल पंप व प्लाट आदि भी प्राय: पत्नी के नाम ही आवंटित होते हैं। जबकि पेंशन की राशि में से भी केवल 30 प्रतिशत वृद्ध माता-पिता को मिलती है शेष 70 प्रतिशत पत्नी को। परन्तु आम तौर पर ऐसा देखा गया है की जब तक सरकार द्वारा प्रदत्त सभी सरकारी सांत्वनाएं अथवा सुविधाएं शहीद फौजी की पत्नी व माता पिता सबको मिल नहीं जातीं तब तक तो शहीद के परिवार में सब कुछ ठीक ठाक नजर आता है और उसका पूरा परिवार एक सुर में बातें करता है और एक सी भाषा बोलता है परन्तु जैसे ही सब कुछ हासिल हो जाता है उसी समय परिवार में तनाव बढ़ना शुरू हो जाता है और फौजी की पत्नी अपने सॉस ससुर से मुंह मोड़ने लगती है। इस तरह के अनेक मामले देखने को मिलेंगे कि शहीद की पत्नी ने अपने दिवंगत पति की शहादत पर मिलने वाली सभी सरकारी सहायताओं को भी ले लिया। यहां तक कि सरकारी नौकरी भी ले ली और बाद में अपनी दूसरी शादी भी कर ली। अपने सॉस ससुर यानी शहीद के बुजुर्ग माता पिता से भी रिश्ता खत्म कर अपनी नई दुनिया बसा ली और उसी में अपने जीवन की खुशी ढूंढ ली। जबकि माता पिता अपनी संतान को खोने के गम को सारी उम्र सहने के लिए उसी की यादों करे सहारे जीने को मजबूर रहते हैं। पिछले दिनों कारगिल दिवस के शहीदों को श्रद्धांजलि देते समय एक बार फिर ऐसे ही एक शहीद के बुजुर्ग माता पिताका दर्द उनकी आँखों से आंसुओं की शक्ल में छलका।
उन्होंने भी यही बताया कि उनके बेटे की शहादत के बाद उनकी विधवा बहू 70 प्रतिशत सरकारी पेंशन की भी मालिक बनी,अनेक सरकारी सहायता भी ले ली,सरकारी नौकरी भी लेली और सब कुछ मिल जाने के बाद बुजर्गों को उनके हाल पर छोड़ कर दूसरी शादी कर अपनी नई नवेली दुनिया में जा बसी। निश्चित रूप से अब वह युग नहीं रहा जब स्त्रियों अपने पति की मृत्यु के बाद उसके नाम पर या उसके बच्चों की परवरिश को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान कर अपना जीवन बसर कर लिया करती थीं। इस सुविधा भोगी युग में कोई युवा विधवा महिला भी यदि दूसरा विवाह करना चाहे तो यह उसका अधिकार भी है और उसके घर के लोग भी अपनी विधवा बेटी को सारी उम्र अकेले जीवन बसर करने के लिए नहीं छोड़ना चाहते। परन्तु किसी शहीद के मां बाप के पास अपने बेटे की यादों के सहारे अपना शेष जीवन जीने बसर करने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं रहता। ले देकर बेटे की शहादत के बाद मिलने वाली राशि या सुविधाएँ ही उनके जीवन बसर करने का साधन होती हैं। परन्तु चूंकि पत्नी ही अपने पति की वास्तविक उत्तराधिकारी मानी जाती है इसलिए सरकारी सुविधाओं पर ज्यादा अधिकार भी उसी का होता है जो सरकार उसे देती भी है।
निर्मल रानी
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)