विधानसभा चुना से पहले अति-उत्साहित मुख्य-मंत्री मनोहर लाल ने जब थ 75 पार का उद्घोष किया तो लगभग सभी को लगा था कि वे मोदी जी के हनुमान हैं अत; सब कुछ संभव है।देखा जाए तो उत्साह जिसे विपक्ष घमंड कह रहा था का मौका भी था। क्योंकि चार महीने पहले हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा ने 79 विधान सभा क्षेत्रों में बढ़त प्राप्त कर 10 की 10 सीट हथिया ली थी।
अत; 75 पार असम्भव नहीं लग रहा था। नारा सुनते ही पिछले पांच साल से मोदी चालीसा रट रहे मिडिया ने भी मनाहर लाल के गुब्बारे में हवा भरना शुरू कर दिया था। प्री पोल हों या एग्जिट पोल सभी 75 या उससे भी ज्यादा का पहाड़ा अलाप रहे थे। आत्म मुग्ध मंत्री, प्रत्याशी सभी गफलत में थे कि वोट तो मोदी जी के नाम से मिलनी हैं। अर्थात सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का राग व्याप्त था भाजपा के खेमं में होता भी क्यों नहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कोमा में था। देश तथा प्रदेश दोनों ही जगह पार्टी नेताविहीन थी। केन्द्रीय पेशोपश के कारण प्रदेश में सारे नेता अपनी अपनी ढपली बजा रहे थे। रणदीप सुरजेवाला केन्द्रीय सता के समीप होने से लाप्राव्ह थे , तंवर साहिब अपनी प्रदेशाध्यक्ष की गद्दी के गरूर में शैलजा तथा किरण चौधरी के अपने ही ख़्वाब अलग दिख रहे थे। भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के अलग बागी तेवर जग जाहिर थे। ऐसे में पार्टी कार्यकर्ता का दिशाहीन होना मजबूरी ही थी। उधर इंडियन लोक दल उर्फ चौटाला परिवार की पार्टी दो फाड़ हो ही चुकी थी उसके दो नेता जेल में थे । ऐसे में 75 पार किसी को असम्भव नहीं लग रहा था।
लेकिन मत गणना से एक दिन पहले एक यू ट्यूब चैनल मसला ने जब भाजपा को 40 व् कांग्रेस को 35 सीट दिखलाई तो लोगों ने इसे मजाक समझा। लेकिन अगले ही दिन एक राष्ट्रीय स्तर के टी वी चैनल जो की मोदी का तरफदार समझा जाता था ने भी अपने एग्जिट पोल में यही आंकड़े दे दिए तो कुछ फुस्फासाह्ट सी होने लगी। लोग दबी जबान से कहने लगे 40 तो नहीं लेकिन 75 भी नहीं।
मतगणना आरम्भ होते ही भाजपा बैक फुट पर नजर आने लगी। मत गणना ने जैसे ही गति पकड़ी भाजपा की हालत मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों द्वा की जैसी होने लगी। एक समय तो कांग्रेस की बढ़त थे 36 व भाजपा 33 पर लुढ़कती नजर आ रही थी। तीन बजे दोपहर को मुख्यमंत्री के सरकारी निवास पर मरघटी सन्नाटा छ गया था। टी वी रिपोर्टर कह रहेथे कि न कोई बाहर आ रहा है न कोई भीतर जा रहा है। क्योंकि तब तक मनोहर सरकार के दो तिहाई से अधिक मंत्री हार चुके थे। 4 बजते बजते सरकार बनाने के जोड़ तोड़ शुरू होने की खबर हर टी वी चैनल दे रहा था। कोई हुड्डा को मुख्यमंत्री तो कोई कर्नाटक ब्रांड सरकार अर्थात दुष्यंत चौटाला को मुख्यमंत्री बन्ने की खबर दे रहा था। लेकिन शाम 5 बजते ही दुष्यंत हुड्डा की चौधर की लड़ाई दो बिल्लियों की लड़ाई बन गई और खट्टर साहिब बंदर की भूमिका में आ गए और मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनने में सफल हो गए।
र भाजपा आखिर हारी क्यों या पीछे क्यों रही इसका सबसे बड़ा कारण तो था जाट फेक्टर। हरियाणा गठन के समय से ही सत्ता सुख भोग रही जाट जाती को गैर जाट का मुख्यमंत्री पर काबिज होना खटक रहा था अत: उन्होंने हर विधान सभा में केवल उस प्रत्याशी कोवोत दिए जो भाजपा को हारने की स्थिति मेंथा : वह चाहे कांग्रेसी था या जजपाई या फिर निर्दलीय ही क्यों था। इसी लिए भाजपा के सभी कद्दावर जाट नेता ध्म्क्द, केप्टन अभिमन्यु या बराला जैसे लोग हार गए।
र एक और कारण था सत्ता का केन्द्रीयकरण यानी सभी निर्णय मुख्यमंत्री द्वारा लिए जानो लोग कहनेलगे थे कि मुख्यमंत्री नेता की तरह नहीं एक कापोर्रेट सी ई ओ की तरह सरकार चला रहे हैं। पिछले 40 साल से विधयाकों मंत्रियो के ब्रह्मास्त्र होते थे नौकरी लगवाना तथा ट्रांसफर करवाना जो इस सरकार में छिन गए थे। इनके बिना वे दंतविहीन शेर थे जिनसे जनता को कोई आशा न रह गई थी। वे किस आधार पर वोट मांगते।
र भाजपासत्ता के मद में आकर टिकट वितरण में भी गलती कर गई उन्हें हरियाणवी मत-दाता की नब्ज समझ नहीं आई अत; मनमर्जी के लोगों को टिकट दे दी न केवल सद्य दल्बद्लूओ को अपितु खिलाड़ी जो नामी तो थे लेकिन जन-मानस से जुड़े हुए नहीं थे बबिता फोगाट हो या योगेशवर दत्त या टिक-टोक वाली महिला। एक और जनता नाराज हुई दूसरी और कार्यकर्ता नाराज होकर निराश होकर घर बैठ गया। समर्पित कार्यकतार्ओं के कारण ही भाजपा अन्य पार्टियों पर भारी पड़ती थी उन्हें नाराज करना महंगा पड़ा भाजपा को।
र अपनी सत्ता के अहंकार में न केवल सरकारी कर्मचारियों यथा रोडवेज, स्वास्थ्य कर्मी ,आंगनवाडी को नाराज करना ही नहीं सर्व-कर्मचारी संघ की नाराजगी की अनदेखी भी एक बड़ा कारण थी
र पंच- सरपंच जो लोकतंत्र की ईंट कहे जाते हैं उन्हें पहली बार सरकार के खिलाफ हड़ताल करनी पड़ी। उनके अधिकारों को सीमित करना भी एक महत्व पूर्ण कारण रहा।
र नोटबंदी से अभी उभरे भी न थे व्यापारी कि जी एस टी को बिना तयारी लागू करना भी व्यपारी वर्ग जिसे भाजपा के मतदाताओं की रीढ़ माना जाता रहा है को नाराज कर गया।
अंतिम कारण रहा कि भाजपा के मतदाता 75 पार के नारे से आश्वश्त होकर वोट डालने नहीं निकले जिस के कारण मतदाता प्रतिशत में कमी आई अब कांग्रेस के परिणाम का भी पोस्टमार्टम कर लें \ एक तो जाट मतदाताओं का रोष दुसरे शैलजा जैसी अनुभवी परखी भाली दलित नेता के प्रदेशाध्यक्ष बनाये जाने से दलित-मुस्लिम- जाट समीकरण से तथा अहीरवाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता की अनदेखी। जाट रोष का सबूत तो सोशल मिडिया पर जजपा व् जजपा सुप्रीमों दुष्यंत के खिलाफ पोस्ट्स से समझ आ जाएगा।
– डॉ. श्याम सखा श्याम
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