5th Anniversary of Article 370 Revocation : कश्मीर में रिसते दर्द से बुना गया नाटक ‘पश्मीना’  

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5th Anniversary of Article 370 Revocation : कश्मीर में रिसते दर्द से बुना गया नाटक ‘पश्मीना’  
5th Anniversary of Article 370 Revocation : कश्मीर में रिसते दर्द से बुना गया नाटक ‘पश्मीना’  

पशुपति शर्मा | नई दिल्ली | देश में जिस वक़्त धारा 370 मुक्त कश्मीर की पाँचवीं सालगिरह पर कई तरह के कार्यक्रम हो रहे थे, ठीक उसी दरमियान दिल्ली के एक हॉल में कश्मीर का दर्द पसर रहा था. पश्मीना शॉल की तरह दो परिवार अपनी औलादों की मौत का ग़म बुन रहे थे. एक फ़ौजी की माँ कश्मीर में बेटे की क़ुर्बानी का दर्द नहीं भूला पा रही थी तो वहीं कश्मीर का एक बुजुर्ग अपने बेटे की वक़्त से पहले हुई मौत को भूल नहीं पा रहा था.

एक फ़ौजी बेटा अपनी माँ को पश्मीना शॉल गिफ़्ट करना चाहता था तो एक कश्मीरी पिता अपने बेटे को पश्मीना शॉल बुनने का हुनर सिखा रहा था.  दिल्ली के एलायंस फ्रैंकेइस के एम. एल. भरतिया ऑडिटोरियम में मंचित नाटक ‘पश्मीना’ कश्मीर की बात तो करता है लेकिन कश्मीर को लेकर बने-बनाए फ़ॉर्मूलों को तोड़कर एक नई ज़मीन पर बहस करता है. यहां कश्मीर कम है, बल्कि हिन्दुस्तान के रंग कहीं ज़्यादा हैं.

यहाँ कश्मीर में आतंक की कथा कम है, बल्कि एक मध्यवर्गीय पति-पत्नी की उलझनें और दिमागी कश्मकश कहीं ज़्यादा है. पश्मीना में फ़ौजी की कथा कम है, एक माँ के लाडले बेटे के खोने का ग़म कहीं ज़्यादा है. एक पिता की चिट्ठी में लिपटा अतुल है. एक पिता की पश्मीना शॉल में संजोया गया आदिल है. अतुल और आदिल की मौत का ग़म एक सा है, उनके समय से पहले इस दुनिया से रूखसती का दर्द एक सा है.

मृणाल माथुर लिखित और साजिदा साजी निर्देशित नाटक पश्मीना में अमर-विभा के दांपत्य की नोंकझोंक है, एक पंजाबी दंपत्ति का अल्हड़पन है, एक कश्मीरी पिता और बेटी के रिश्ते का सोंधापन है, माँ और बेटे के बीच लाड़-प्यार के रंग हैं, बहन-भाई के बीच का खिलंदड़ापन है, लेकिन इतना कुछ होने के बावजदू कभी-कभी ये लगता है कि कश्मीर आधारित इस नाटक में कश्मीर कहीं कम तो नहीं है.

नाटक की शुरुआत कश्मीर में लोगों के पलायन, फ़ौजियों के बूटों की आवाज़ और इन सबके बीच गोले-बारूद की गंध से होती है लेकिन नाटक यहीं ठहरता नहीं, बल्कि आगे बढ़ जाता है. हमारी आपकी ज़िंदगी में दाखिल हो जाता है. कभी ऐसा लगता है कि दो-दो पैसे जोड़कर सालाना ट्रिप करने वाले अमर-विभा की मजबूरियों का दायरा कितना बड़ा है.

कभी लगता रविंद्र ढिल्लो और उनकी पत्नी की ठसक में कितना फ़रेब है, प्रेम का दिखावा और प्रेम की असलियत में कितना फ़ासला है. कश्मीर में ‘सौदा’ करने के मिज़ाज से दाखिल लोग हर बार ठगे गए हैं, लेकिन जो प्रेम से कश्मीर आया है, उसे कश्मीर ने प्रेम से बुनी गई पश्मीना शॉल ही गिफ़्ट की है. ये कश्मीर की रवायत है और यही पैग़ाम सवा घंटे का ये नाटक दे जाता है.

किरदारों में जॉय माईस्नाम, साजिदा साजी और मोहन जोशी कश्मीर के उस अनकहे दर्द में दर्शकों को साझीदार बना लेते हैं.   दिव्यांश,  रिक्की सचदेवा,  अपर्णा राणा और आदिल से भी दर्शकों का राब्ता बन जाता है. कोरस का बेहतर इस्तेमाल किया गया है.

कश्मीर का गीत, पंजाबी दंपत्ति का कॉमेडी वाला तड़का और हौले-हौले से बहती कश्मीरियत नाटक को यादगार बना जाते हैं. दीक्षा, आकांक्षा, अपर्णा, सूरज, गौरव, प्रशांत और आर्यन ने कोरस के रूप में बेहतर काम किया है. संगीत संयोजन आकाश का है, लाइट अली ने की है. नाटक की निर्देशिका साजिदा साजी ने नाटक बेहतर बुना है लेकिन अगर कश्मीर आधारित इस नाटक में कश्मीर थोड़ा और घुल जाए तो शायद बेहतर हो.

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