15 August 1947 Untold Story : तथाकथित आजादी के वो पंद्रह दिन…

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15 August 1947 Untold Story : तथाकथित आजादी के वो पंद्रह दिन...
15 August 1947 Untold Story : तथाकथित आजादी के वो पंद्रह दिन...

(शृंखला भाग-3)

15 August 1947 Untold Story | 3 अगस्त 1947, आज के दिन गांधीजी की महाराजा हरिसिंह से भेंट होना तय थी। इस सन्दर्भ का एक औपचारिक पत्र कश्मीर रियासत के दीवान, रामचंद्र काक ने गांधीजी के श्रीनगर में आगमन वाले दिन ही दे दिया था। आज 3 अगस्त की सुबह भी गांधीजी के लिए हमेशा की तरह ही थी। अगस्त का महीना होने के बावजूद किशोरीलाल सेठी के घर अच्छी खासी ठण्ड थी। अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार गांधीजी मुंह अंधेरे ही उठ गए थे। उनकी नातिन ‘मनु’ तो मानो उनकी परछाईं समान ही थी। इस कारण जैसे ही गांधीजी उठे, वह भी जाग गयी थी।

मनु गांधीजी के साथ ही सोती थी। लगभग एक वर्ष पूर्व अपने नोवाखाली दौरे के समय गांधीजी मनु को अपनी बांहों में लेकर सोते थे। यह उनका ‘स’त्य के साथ एक प्रयोग’ था। एक अत्यंत पारदर्शी एवं स्वच्छ मन वाले गांधीजी के अनुसार इसमें कुछ भी गलत नहीं था। हालांविः इस खबर की बहुत गर्मागर्म चर्चाएं हुईं। कांग्रेस के नेताओं ने इस मामले में कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा, वे मौन ही बने रहे। जबकि देश के कई भागों में ‘सत्य के इस कथित प्रयोग’ के बारे में विरोधी जनमत स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगा था। अंततः बंगाल का अपना दौरा समाप्त करके जब गांधीजी बिहार के दौरे पर निकले, उस समय मनु उनसे अलग हो गयी।

इधर श्रीनगर में ऐसा कुछ भी नहीं था. गांधीजी और मनु की वैसी खबरें पीछे रह गयी थीं. अपनी नातिन के साथ गांधीजी का रहना-सोना अब कौतूल की बात नहीं थी। बहरहाल… सूर्योदय से पहले ही गांधीजी की प्रातः प्रार्थना पूर्ण हो चुकी थी, और वे उनके ठहरने के स्थान की साफसफाई में लग गए थे। सारी नित्य क्रियाएं संपन्न होने के बाद लगभग ग्यारह बजे गांधीजी कश्मीर के महाराज हरिसिंह के ‘गुलाब भवन’ नामक राजप्रासाद में पहुंचे।

हिरेन वी. गजेरा

भले ही गांधीजी की यह भेंट महाराज की इच्छा के विरुद्ध थी, परन्तु फिर भी महाराज ने गांधीजी के स्वागत में कोई भी कमी नहीं छोड़ी थी, स्वयं महाराज हरिसिंह, महारानी तारादेवीसिंह, राजप्रासाद के विशाल प्रांगण में गांधीजी के स्वागत हेतु खड़े थे। युवराज कर्णसिह भी वहां अपने शाही अंदाज़ में स्वागत हेतु तत्पर थे। महारानी तारादेवी ने तिलक एवं आरती के साथ उनका परम्परागत स्वागत किया।

(उस गुलाब भवन नाम के राजप्रासाद के जिस वृक्ष के नीचे गांधीजी और महाराज की भेंट हुई थी, उस वृक्ष पर इस भेंट की स्मारिका के बतौर एक ताम्र पट्टिका लगाई गयी है। हालांकि उस ताम्र पट्टिका पर इन दोनों की भेंट की दिनांक गलत लिखी गयी है। गांधीजी महाराज ह रेसिंह से 3 अगस्त 1947 को मिले थे, जबकि इस ताम्र पट्टिका में जून 1947 ऐसा लिखा है।) उस दिन राजप्रासाद में विचरण करते समय गांधीजी के चेहरे पर किसी किस्म का दबाव या तनाव नहीं दिखाई दे रहा था। वे अत्यंत सहजता से वहां घूम-फिर रहे थे।

महाराज हरिसिंहऔर गांधीजी के बीच लम्बी चर्चा हुई, परन्तु इस समूची चर्चा में गांधीजी ने महाराज का ‘भारत में शामिल हों’ ऐसा एक बार भी नहीं कहा। यदि गांधीजी ने वैसा कहा होता, तो उनके मतानुसार यह उचित नहीं होता। क्योंकि गांधीजी का ऐसा मानना था कि वे भारत और और पाकिस्तान दोनों देशों के पितृपुरुष हैं। हालांकि दुर्भाग्य से उन्हें यह जानकारी ही नहीं थी कि पाकिस्तान मांगने वाले मुसलमान उन्हें एक ‘हिन्दू नेता’ ही मानते हैं, उनका द्वेष करते हैं। और इसीलिए पाकिस्तान में गांधीजी का रत्ती भर भी सम्मान और स्थान नहीं हैं।

अंग्रेजों के चले जाने के बाद कश्मीर रियासत को कौन सी भूमिका निभानी चाहिए, अथवा कौन सा निर्णय लेना चाहिए, इस सम्बन्ध में गांधीजी को कुछ कहना ही नहीं था। इसलिए महाराज और उनके बीच कोई राजनैतिक चर्चा हुई ही नहीं। अलबत्ता गांधीजी की इस ‘निरपेक्ष’ भेंट के परिणामस्वरूप नेहरू का ‘कश्मीर एजेण्डा’ लागू करने में मदद मिली। तीन अगस्त को यह भेंट हुई और दस अगस्त को महाराज के विश्वासपात्र और नेहरू को कैद में ड्रेसने वाले कश्मीर रियासत के दीवान रामचंद्र काक को महाराज ने अपनी सेवाओं से मुक्त कर दिया।

दूसरी परिणाम यह रहा कीनेहरू के खास मित्र, यानी शेख अब्दुल्ला, को कश्मीर की जेल से 29 सितम्बर को छोड़ दिया गया। सरसरी तौर पर देखा जाए तो गांधीजी की इस भेंट का परिणाम इतना ही दिखाई देता है। परन्तु यदि गांधीजी ने इन दोनों मांगो के अलावा, इसी के सःव महाराज हरिसिंह से भारत में शामिल होने का अनुरोध किया होता, या वैसी सलाह दी होती, तो तय जानिये कि अक्टूबर 1947 से काफी पहले, अगस्त 1947 में ही कश्मीर का भारत में विलीनीकरण हो चुका होता। आज कश्मीर के जो ज्वलंत प्रश्न देश के सामने खड़े हैं, वे उत्पन्न ही नहीं होते।

किन्तु ऐसा होना न था… मंडी हिमालय की गोद में बसा हुआ एक छोटा सा शहर मनु ऋषि के नाम पर इसका नाम मंडी पड़ा है, व्यास (बिआस) नदी के किनारे पर स्थित यः स्थान नयनाभिराम एवं प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है. १९४७ में यह सुन्दर इलाका भी अपने-आप में एक रियासत था। परंतु इस रियासत के राजा के मन में भी यही बात चल रही थी, कि अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के बाद मंडी स्वतन्त्र ही रहे. भारत में शामिल न हो. इसी प्रकार मंडी के पड़ोस में स्थित ‘सिरमौर’ राज्य के राजा ने भी भारत में विलीन न होने की बात रखते हुए उसे स्वतंत्र रखने का निश्चय किया था। हालांकि ये सभी बेहद छोटी-छोटी रियासतें यह भी समझ रही थी, कि जब कई बड़ी रियासतें मिलकर एक बड़ा देश बन ही रहा है, तो उनका स्वतन्त्र रहना संभव नहीं होगा।

इसी बीच उन्हें यह जानकारी मिली कि कश्मीर के महाराज भी अपनी रियासत को स्वतंत्र रखने के विचार में हैं, तब इन्होंने यह योजना बनाई कि जम्मू-कश्मीर, पंजाब और शिमला इत्यादि के पहाड़ी राज्यों का एक वृहद संघ बनाकर उसे भारत से स्वतंत्र ही रखा जाए। इसी सिसिले में मंडी और सिरमौर, दोनों राज्यों के राजाओं ने पिछले हफ्ते ही लॉर्ड माउंटबेटन से भेंट की थी। पहाड़ी राज्यों के एक हद संघ संबंधी प्रस्ताव पर विचार करने के लिए और समय चाहिए, ऐसी मांग रखी थी। इन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि फलहाल भारत में शामिल होने के संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करना संभव नहीं है।

अभी हमें और समय चाहिए। दिल्ली स्थित अपने भव्य एवं प्रभावशाली वायसरॉय कार्यालय में बैठे लॉर्ड लुई माउंटबेटेन इन दोनों राजाओं का पत्र बार-बार पढ़ रहे थे। असल में जितने अधिक राजे-रजवाडे स्वतन्त्र रहने का आग्रह करते, देश छोड़ते समय अंग्रेजों के सामने उतनी अधिक दिक्कतें पैदा होती। इसीलिए ऐसे छोटी-छोटी रियासतों का स्वतन्त्र रहना, या भारत में शामिल होने से असहमति व्यक्त करना, माउंटबेटन को तख्न नापसंद था।

लेकिन फिर भी लोकतंत्र और अपने पद का सम्मान रखने की खातिर माउंटबेटन ने इसी सन्दर्भ में सरदार पटेल को एक पत्र लिखना आरम्भ किया। तीन अगस्त की दोपहर, सरदार पटेल को यह पत्र लिखते समय (और यह जानते बृद्धझते हुए भी कि इस पत्र पर कोई अनुकूल निर्णय होने वाला नहीं है), माउंटबेटन ने मंडी और सिरमौर, दोनों राजाओं को विलीनीकरण के पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए थोड़ा और समय देने का अनुरोध सरदार पटेल से किया, डॉक्टर बाबासाहब जावेडकर आज दिल्ली में ही थे।

पिछले कुछ दिनों से उनके पास भी तरह-तरह के कामों की भीषण व्यस्तता थी। उनके ‘शेक्यूलकास्ट फेडरेशन’ नामक संगठन के कार्यकर्ता, देश भर से विविध कामों के लिए एवं उनका मार्गदर्शन लेने के लिए दिल्ली आ रहे थे। दर्जनों पत्र लिखने-पढ़ने बाकी थे। परन्तु बाबासाहब को यह परिस्थिति बड़ी रुचिकर लगती थी। अर्थात जितना अधिक काम होगा वे अपने काम में गहराई और गंभीरता से जुब जाना पसंद करते थे. ऐसे विभिन्न कामों का बोझ तो उनके लिए उत्सव के समान ही था।

इसीलिए जब पिछले सप्ताह नेहरू ने उन्हें आगामी मंत्रिमंडल में शामिल होने के सम्बन्ध में पूछा था, तब बाबासाहब ने उसका सकारात्मक उत्तर दिय, बाबासाहेब ने कहा कि “क़ानून मंत्रालय में कोई खास काम नहीं है, इसलिए मुझे कोई ऐसी जिम्मेदारी दीजिए, जिसमें बहुत सारा काम करना पड़े। “नेहरूहसे और बोले, “निश्चित ही, एक बहुत बड़ा काम में आपको सौंपने जा रहा हूं।” और आज दोपहर को ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पत्र बाबासाहब आंबेडकर को मिला, इस पत्र के माध्यम से उन्होंने बाबासाहब को स्वतंत्र भारत का पहला कानून मंत्री नियुक्त किया था. बाबासाहब और उनकी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं आनंददायक अवसर था।

इधर दिल्ली की इस अगस्त वाली उमस भरी भयानक गर्मी में सिरिल रेडक्लिफ साहब को बहुत कष्ट हो रहा था. ब्रिटेनके यह निर्भीक एवं निष्पक्ष माने जाने वाले न्यायाधीश महोदय भारत के विभाजन की योजना पर काम करने के लिए मुश्किल से तैयार हुए थे। प्रधानमंत्री एटली ने उनकी न्यायप्रियता एवं बुद्धिमानी को देखते हुए लगभग जिद पकड़ते हुए उन्हें इस काम के लिए राजी किया था। इसमें पंच यह था कि माउंटबेटन को भारत का विभाजन करने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए था, जिसे भारत के बारे में कोई खास जानकारी नहीं हो।

न्यायमूर्ति रेडक्लिफइस कसौटी पर खरे उतरते थे। दिल्ली आने पर ‘कुछ भी जानकारी नहीं होना’ यह कितना बड़ा बोझ और सिरदर्द है, यह रेडक्लिफ साहब को जल्दी ही समझ में आ गया. एक अत्यंत विशाल प्रदेश, जिसमें नदियां, नाले, पहाडियों का प्रचंड जाल बिछा हुआ है। ऐसे विस्तीर्ण प्रदेश के नक्शे पर एक ऐसी विभाजक लकीर खींचना, जिसके कारण हजारों परिवारों का सब कुछ उजड़ जाने वाला है। पीढ़ियों से रह रहे लाखों परिवारों के लिए अचानक कोई जमीन पराई हो जाने वाली है… बहुत कठिन कार्य था यह..!

रेडक्लिफ साहब को इस कार्यके जटिलता की पूरी जानकारी थी और वे उनकी क्षमता के अनुसार, पूरी निष्पक्षता के साथ विभाजन करने का प्रयास भी कर रहे थे। उनके बंगले के तीन बड़े-बड़े कमरे, तरह-तरह से कागजों से और भिन्न-भिन्न प्रकार के नक्शों से पूरी तरह ‘भर चुके थे। आज ३ अगस्त के दिन उनका काफी सारा काम लगभग खत्म हो चुका था। पंजाब के कुछ विवादित क्षेत्रों का बंटवारा अभी बाकी रह गया था, जिस पर वे अपना अंतिम विचार कर रहे थे। इसी बीच उन्हें मेजर शॉर्ट का लिखा हुआ एक पत्र प्राप्त हुआ।

मेजर शॉर्ट एक सैनिक मानसिकता वाला, पक्का ब्रिटिश अधिकारी था। भारत की सामान्य जनता की प्रतिक्रियाएं एवं राय, रेडक्लिफ साहब तक पहुंचाने के लिए उसने यह पत्र लिखा था। उस पत्र में उसने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि जनता का ऐसा मानना है कि माउंटबेटन जैसा चाहेंगे, रेडक्लिफ बिना विरोध किए बिलकुल वैसा ही निर्णय देंगे’ रेडक्लिफ इस पत्र पर विचार करते रहे। पत्र का यह हिस्सा वास्तव में सच ही था, क्योंकि रेडक्लिफ पर माउंटबेटन का गहरा प्रभाव तो निश्चित ही था।

तीन अगस्त की दोपहर लगभग चार बजे, 17, यॉर्क हाउस स्थित जवाहरलाल नेहरू के निवास से एक प्रेसनोट जारी किया गया। चूंकि राजनैतिक गहमागहमी के दिन थे, तो रोज ही कोई न कोई प्रेसनोट निकलता था अथवा प्रेस कांफ्रेंस आयोजित होती ही थी, परन्तु जान की प्रेसनोट देश और पत्रकारों के लिए विशेष महत्त्व रखती थी। इस प्रेसनोट के माध्यम से नेहरू ने अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के नाम घोषित किए थे। यह स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल था। इसीलिए इस प्रेसनोट का अपने-आप में एक विशिष्ट महत्त्व था।

इस प्रेसनोट में नेहरू ने अपने सहयोगियों के नाम क्रमानुसार दिए थे, जो कि इस प्रकार थे, – सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसादा, डॉक्टर जॉन मथाई, जगजीवन राम, सरदार बलदेव सिंह, सी. एच. भाभा, राजकुमारी अमृत कौर, डॉक्टर भीमराव आगेडकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, शनमुगम चेट्टी एवं नरहरि विष्णु गाडगिन। इन बारह सदस्यों में से राजकुमारी अमृत कौर एकमात्र महिला थी, जबकि डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर रोड्यूल कास्ट इन बारह सदस्यों में से राजकुमारी अमृत कौर एकमात्र महिला थीं, जबकि डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर रोड्यूल कास्ट फेडरेशन पार्टी के, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा के, और सरदार बलदेव सिंह पंधिक पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में मंत्रिमंडल में लिए गए थे।

उधर सुदूर पश्चिम में राममनोहर लोहिया का एक प्रेसनोट अखबारों के कार्यालयों में पहुंच चुका था, जिसने लाखों गोवा निधासियों को निराश कर दिया था। लोहिया ने अपने प्रेस नोट के माध्यम से यह सूचित किया था, कि ‘गोवा की स्वतंत्रता, भारत के स्वतंत्रता के साथ में होना संभव नहीं है. इस कारण गोवा के निवासी अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई आगे जारी रखें…
विभाजन की भीषण घटनाओं एवं इस त्रासदी से दूर, उधर महाराष्ट्र में आलंदी नामक स्थान पर काँग्रेस में काम करने वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की बैठक का आज दूसरा एवं अंतिम दिन था।

कल से ही इन वामपंथी कार्यकर्ताओं में मंथन का दौर जारी था। अंततः यह तय किया गया कि काँग्रेस के अंदर ही एक साम्यवादी विचारों वाला तथा किसानों मजदूरों के हितों की बात करने वाला, एक शक्तिशाली गुट निर्माण किया जाए, शंकरराव मोरे, केशवराव जेधे, भाऊसाहेब राउत, तुलसीदास जाधव इत्यादि नेताओं द्वारा इस आंतरिक गुट का नेतृत्व सामूहिक रूप से किया जाए, यह भी तय किया गया, अर्थात अब महाराष्ट्र में एक नए साम्यवादी दल का उदय होने जा रहा था।

श्रीनगर में गांधीजी के प्रवास का आज अंतिम दिन था। कल सुबह वे जम्मू के लिए निकलने वाले थे। इस कारण आज शाम उनकी मेजबानी बेगम अकबर जहाँ करने वाली थीं। उन्होंने बाकायदा गांधीजी को शाम के भोजन हेतु निमंत्रण दिया था। चूंकि शेख अब्दुल्ला पर गांधीजी का अत्यधिक स्नेह था, इसलिए इस भोजन के निमंत्रण को ठुकराने का सवाल ही नहीं था। भले ही शेख अब्दुल्ला जेल में थे, किन्तु उनकी अनुपस्थिति में बेगम साहिबा ने गांधीजी की अगवानी और स्वागत की जबरदस्त तैयारी की थी, नेशनल कांफ्रेंर के कार्यकर्ता स्वयं सारी व्यवस्था देख रहे थे। यहां तक कि खुद बेगम साहिबा और उनकी लड़की खालिदा, यह दोनों भी गांधीजी के स्वागत के लिए दरवाजे पर ही खड़ी रहीं।

जब गांधीजी ने इस शेख अब्दुल्ला परिवार के इस राजसी ठाटबाट को देखा, तो वे बेचैन हो गए. यह इंतजाम उनकी कल्पना से परे था। उन्होंने सोचा ही नहीं था कि उनकी मेजबानी ऐसे शाही अंदाज में होगी। उन्होंने बेगम साहिबा के समक्ष अपनी हलकी अप्रसन्नता व्यक्त की। लेकिन फिर भी गांधीजी उस पार्टी में पूरे समय रुके रहे। तीन अगस्त की काली एवं बेचैन रात धीरे-धीरे आगे सरक रही थी, लाहौर की तरफ से, पठानकोट की तरफ से, और उधर बंगाल से, लाखों सम्पन्न परिवार शरणार्थी के रूप में इस खंडित भारत के अंदर धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे।

उन्हें अपने प्राणों का भय था। जीवन भर की कमाई और चल-अचल संपत्ति को पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान में छोड़कर भागने की मर्मान्तकपीड़ा थी। भारत में शरणार्थी बनने की विकलता थी। भूख, प्यात्स, थके हुए शरीर, बीवी-बच्चों के भीषण कष्ट इत्यादि सहन करने के त्रासदी वी, लेकिन उधर दिल्ली में राजनीती अपनी गति से जारी ही थी…

क्रमशः… भाग-4 तथाकथित स्वतंत्रता एवं उसके साथ ही विभाजन को अब बारह रातें ही बाकी बची थी…!!!

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