तथाकथित आजादी के “वो पंद्रह दिन”… (शृंखला भाग-5)
15 August 1947 Untold Stories Part 5 | तथाकथित स्वतंत्रता के “वो पंद्रह दिन” की घटित घटनाओं का आज पांचवा दिन यानि तारीख 5 अगस्त, मंगलवार… आकाश में बादल छाये हुये थे, लेकिन फिर भी थोड़ी ठण्ड महसूस हो रही थी। जम्मू से लाहौर जाते समय रावलपिन्डी का रास्ता अच्छा था, इसीलिए गांधीजी का काफिला पिण्डी मार्ग से लाहौर की तरफ जा रहा था। रास्ते में ‘वाह’ नामक एक शरणार्थी शिविर लगता था। गांधीजी के मन में इच्छा थी कि इस शिविर में जाकर देखा जाए। लेकिन उनके साथ जो कार्यकर्ता थे, वे चाहते थे कि गांधीजी वहां न जा सकें।
क्योंकि ‘वाह’के उस शरणार्थी शिविर में दंगों से बचे हुए हिन्दू-सिखों का तात्कालिक बसेरा था। इन हिन्दुओं और सिखों की दर्दनाक आपबीती हृदयद्रावक थीं। ये सभी शरणार्थी, जो कल लखपति थे, आज अपना घरबार छोड़कर इस शिविर में शरण लेने आए थे इनमें से अनेकों के परिजन मुस्लिम गुंडों के हाथों मारे गए थे। अनेकों की बहनों, बेटियों, पत्नियों के साथ उनकी आंखों के सामने ही बलात्कार किया गया था, जो उन्होंने खून के घूंट पीकर सहन किया। इसीलिए स्वाभाविक ही था कि कांग्रेस और गांधीजी के प्रति इन परिवारों का क्रोध इस शरणार्थी शिविर में साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था।
कांग्रेस के कार्यकर्ता सोचते थे कि गांधीजी को इस शिविर में ले जाना उनकी सुरक्षा के लिए ठीक नहीं होगा। परंतु गांधीजी का निश्चय अटल था कि “मैं ‘वाह’ के शरणार्थी शिविर जरूर जाऊंगा और उन परिवारों से भेंट करूंगा।” अंततः यह निश्चित हुआ कि गांधीजी वहां जायेंगे। दोपहर होते-होते गांधीजी का काफिला इस शरणार्थी शिविर में पहुंचा। ‘वाह’ का यह शरणार्थी शिविर एक तरह से रक्तरंजित इतिहास का जीवंत उदाहरण था. पिछले माह तक इस शिविर में शरणार्थियों की संख्या पंद्रह हजार तक पहुंच चुकी थी। लेकिन जैसे-जैसे 15 अगस्त का दिन नजदीक आ रहा था, वैसे-वैसे इस शिविर के शरणार्थियों की संख्या कम होती जा रही थी।
क्योंकि यह पता चल चुका था कि यह क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में जाने वाला हैं। हिन्दू और सिख परिवारों ने यह समझ लिया था कि अब वे पाकिस्तान में सुरक्षित नहीं रहेंगे। इसलिए सभी निर्वासित लोग, जैसे भी संभव हो रहा था, पूर्वी पंजाब की तरफ भागते चले जा रहे थे। गांधीजी जब पहुंचे तब शिविर में नौ हजार लोग थे। इनमें अधिकांशतः पुरुष ही थे, कुछ प्रौढ़ और बुजुर्ग महिलाएं भी थीं। लेकिन एक भी जवान लड़की इस पूरे शिविर में नहीं थी, क्योंकि शिविर में पहुंचने से पहले ही मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ताओं ने या तो उनका अपहरण करके बलात्कार किया था, अथवा हत्या कर दी थी। यह शरणार्थी शिविर नहीं, बल्कि ‘यातना शिविर’ जैसा प्रतीत हो रहा था।
बारिश हो चुकी थी, चारों तरफ कीचड़ जमा था। अनेक टेंट टपक रहे थे, स्थान-स्थान पर राशन-पानी लेने के लिए लम्बी-लम्बी कतारें लगी हुई थीं। गांधीजी के पहुंचने के बाद कुछ शिविरार्थियों को, जिस स्थान पर कम से कम कीचड़ था, वहां एकत्र किया गया। नौ हजार में से लगभग एक-डेढ़ हजार शरणार्थी गांधीजी को सुनने के लिए जमा हो ही गए। कीचड़ और गंदे पानी के बेहद बदबूदार माहौल में, गांधीजी ने पहले अपनी प्रार्थना की और उसके पश्चात शिविरार्थियों के साथ संवाद आरंभ किया। भीड़ में से दो सिख खड़े हुए, उनका कहना था कि “यह शिविर तत्काल ही पूर्वी पंजाब में स्थानांतरित किया जाए, क्योंकि 15 अगस्त के बाद यहां पाकिस्तान का शासन हो जाएगा…
पाकिस्तान का शासन यानी मुस्लिम लीग का शासन। जब ब्रिटिशों के शासन में ही मुसलमानों ने हिन्दुओं और सिखों के इतने सारे क़त्ल-बलात्कार किए हैं तो जब उनका शासन आ जाएगा तब हमारा क्या होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।”
इस पर गांधीजी थोड़ा मुस्कुराए और अपनी धीमी आवाज में बोलने लगे कि, “आप लोगों को पंद्रह अगस्त के बाद दंगों का भय सता रहा है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए था, वह उन्हें मिल चुका है। इसलिए अब वे दंगा करेंगे ऐसा मुझे तो कतई नहीं लगता।
इसके अलावा स्वयं जिन्ना साहब और मुस्लिम लीग के कई नेताओं ने मुझे शान्ति और सौहार्द का भरोसा दिलाया है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि पाकिस्तान में हिन्दू और सिख सुरक्षित रहेंगे। इसलिए हमें उनके आश्वासन का आदर करना चाहिए। यह शरणार्थी शिविर पूर्वी पंजाब में ले जाने का कोई कारण मुझे समझ नहीं आता। आप लोग यहां पर सुरक्षित रहेंगे। अपने मन में से दंगों का भय निकाल दें।
यदि मैंने पहले से ही नोआखाली जाने की स्वीकृति नहीं दी होती, तो पंद्रह अगस्त को मैं आपके साथ यहीं पर रहता… इसलिए आप लोग चिंता न करें। (Mahatma Volume 8, Life of Mohandas K. Gandhi – D. G. Tendulkar). जब गांधीजी शिविर में यह सब बोल रहे थे, उस समय सामने खडी भीड़ के चेहरों पर क्रोध, चिढ़ और हताशा साफ़ दिखाई दे रही थी। लेकिन फिर भी ‘इन शरणार्थियों के मन में मुसलमानों के प्रति इतना भय और क्रोध क्यों है’, यह गांधीजी की समझ में नहीं आ रहा था। हालांकि बाद में गांधीजी ने अपने प्रतिनिधि के रूप में डॉक्टर सुशीला नायर को इसी शरणार्थी कैम्प में ठहरने का आदेश दिया।
उधर लाहौर की दोपहर…
‘लाहौर’, यानी प्रभु रामचंद्र के पुत्र ‘लव’ के नाम पर स्थापित शहर। पंजाबी संस्कृति का मायका, शालीमार उद्यान का शहर, नूरजहाँ और जहाँगीर के मकबरे वाला शहर, महाराजा रंजीतसिंह का शहर, अनेक मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों का शहर… कामिनी कौशल का शहर। पंजाबी रंग-ढंग में रचा-बसा, उत्साह से लबालब भरा लाहौर शहर। परंतु आज 5 अगस्त 1947 की यह दोपहर बड़ी सुस्त सी थी। लगभग उदासी भरी दोपहर। क्योंकि आज लाहौर शहर के सभी हिन्दू और सिख व्यापारियों ने ‘शहर बंद’ का आयोजन किया था।
इन समुदायों पर लगातार होने वाले हमले और अत्याचारों के विरोध में इन्होंने आज का बंद आयोजित किया था। इससे पहले हिन्दू-सिख प्रतिनिधिमंडल ने विभिन्न स्तरों पर अपनी बात मजबूती से रखी थी। आज से तीन-साढ़े तीन महीने पहले ही, अर्थात अप्रैल में ही, लाहौर, रावलपिंडी सहित आसपास के इलाकों में मुसलमानों द्वारा किए गए आक्रमणों के ज़ख्म हरे ही थे, और आगे भी इन हमलों की तेजी में कोई कमी होने के चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे। मुस्लिम नेशनल गार्ड की आक्रामकता बढ़ती ही जा रही थी।
उनकी धमकियां और प्रतिदिन के उत्पात बढ़ रहे थे। कहने के लिए तो ‘नेशनल मुस्लिम गार्ड’ का मुस्लिम लीग से कोई सम्बन्ध नहीं था, परंतु यह केवल दिखावा भर था। मुस्लिम नेशनल गार्ड, मुस्लिम लीग का ही झंडा उपयोग कर रहा था। वास्तविकता यह थी कि मुस्लिम नेशनल गार्ड तो मुस्लिम लीग का ही छिपा हुआ एक आक्रामक संगठन था। हिन्दू एवं सिख व्यापारियों को पाकिस्तान से खदेड़ना और उनकी जवान बहन-बेटियां उठा ले जाना, यही इनका मुख्य काम-धंधा बन चुका था। लेकिन मंगलवार, पांच अगस्त की इस उदास दोपहर में लाहौर के गवर्नर हाउस में कतई सुस्ती नहीं थी। गवर्नर सर इवान जेन्किन्स बड़ी बेचैनी के साथ अपने दफ्तर में काम कर रहे थे।
जेन्किन्स अब पूरी तरह से पंजाबी संस्कृति में ढल चुके ब्रिटिश नौकरशाह थे। पंजाब के बारे में उनकी जानकारी एकदम परिपूर्ण एवं अचूक थी। इसीलिए वह मन ही मन चाहतेथे कि विभाजन ना हो। आज दिन भर में लाहौर की घटनाओं पर उनकी विशेष निगरानी बनी हुई थी। सिखों द्वारा व्यापार की हड़ताल के कारण कहीं दंगे और न भड़क जाएं, इसकी चिंता उन्हें सता रही थी। मुस्लिम नेशनल गार्ड की तरफ से दंगे भड़काने का पूरा प्रयास किया जा रहा है, इस बात की ख़ुफ़िया खबर उनके पास पहले ही पहुंच चुकी थी।
इसी अफरातफरी में ‘कल गांधीजी लाहौर की संक्षिप्त यात्रा पर आने वाले हैं’ यह सूचना भी उनके पास थी… इसलिए उनकी चिंता और अधिक बढ़ रही थी। लाहौर के गोमती बाजार, किशन नगर, संत नगर, राम गली, राजगढ़ जैसे हिन्दू बहुल भागों में व्यापार हड़ताल एकदम सफल थी। यहां तक कि रास्तों पर भी इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे। ये सारा इलाका हिन्दू-सिख बहुल था।
इस इलाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं का जबरदस्त नेटवर्क बना हुआ था। प्रतिदिन शाम को विभिन्न मैदानों में लगने वाली प्रत्येक शाखा में कम से कम दो सौ से तीन सौ हिन्दू और सिख जवान हाजिर रहते थे। मार्च से पहले लाहौर में संघ की शाखाओं की संख्या ढाई सौ पार कर गयी थी।
मार्च-अप्रैल के दंगों के बाद अनेक हिन्दू विस्थापित हो चुके थे, और अब उन इलाकों की शाखाएं बंद हो गयी थीं। लाहौर के तीन लाख हिन्दू-सिखों में से लगभग एक लाख से अधिक हिन्दू-सिख पिछले तीन माह में लाहौर छोड़कर पूर्वी पंजाब (यानी भारत) में जा चुके थे। दंगों, आगज़नी, लूटपाट, बलात्कार के इस अशांत वातावरण के बीच लाहौर से बारह सौ किमी दूर, सिंध प्रांत के कराची में एक अलग प्रकार की हड़बड़ी दिखाई दे रही थी।
सामान्यतः बेहद कम भीड़भाड़ वाले कराची हवाई अड्डे पर आज चारों तरफ भारी भीड़ दिखाई दे रही थी। ठीक दोपहर 12:55 पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गोलवलकर गुरूजी, टाटा एयर सर्विसेस के विमान से मुम्बई से कराची आने वाले थे। मुम्बई के जुहू हवाई अड्डे से यह विमान ठीक आठ बजे निकल चुका था। बीच रास्ते में इसे अहमदाबाद में एक संक्षिप्त विराम लेना था और अब यह कराची पहुंचने ही वाला था। इस विमान में गुरूजी के साथ डॉक्टर आबाजी थत्ते भी थे।
नए बनने वाले पाकिस्तान के इस बेहद अशांत माहौल में, गुरूजी की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था स्वयंसेवकों ने अपने हाथ में ले रखी थी। बड़े पैमाने पर स्वयंसेवक कराची हवाई अड्डे पर उपस्थित थे। कराची महानगर के कार्यवाह लालकृष्ण आडवाणी भी इन स्वयंसेवकों में शामिल थे। गुरूजी की कार के साथ-साथ मोटरसायकल पर चलने वाले स्वयंसेवकों का एक अलग गट मौजूद था। कराची हवाई अड्डा कुछ ख़ास बड़ा नहीं था, इसलिए सैकड़ों स्वयंसेवकों की भीड़ बहुत भारी भीड़ लग रही थी। ठीक एक बजे गुरूजी और आबाजी विमान से उतरे।
हवाई अड्डे पर खड़े स्वयंसेवकों के बीच किसी प्रकार की जल्दबाजी, आपाधापी अथवा भ्रम नहीं था। सारे स्वयंसेवक अनुशासित पद्धति से अपना काम कर रहे थे। तीन स्वयंसेवक बुरका पहनकर आए थे और उसकी जाली में से अपनी चौकस निगाहों द्वारा पूरे हवाई अड्डा परिसर की निगरानी भी कर रहे थे। आबाजी के साथ ही गुरूजी हवाई अड्डे की मुख्य इमारत में पहुंचे और अचानक एक जोरदार गर्जना हुई… “भारत माता की जय।” गुरूजी को लेकर संघ कार्यकर्ताओं का एक बड़ा सा काफिला कराची शहर की तरफ बढ़ चला।
आज शाम को ही संघ का पूर्ण गणवेश में एक विशाल पथ संचलन निकलने वाला था और कराची के प्रमुख चौराहे पर गुरूजी की आमसभा निश्चित की गयी थी। अब केवल नौ या दस दिनों के भीतर जो भाग पाकिस्तान में शामिल होने जा रहा हो, तथा वर्तमान में जिस कराची शहर को पाकिस्तान की अस्थायी राजधानी कहा जा रहा हो, ऐसे शहर में हिन्दुओं द्वारा पथ संचलन निकालना और गुरूजी की आमसभा आयोजित करना एक अत्यधिक साहसी कदम था।
दंगाई मुसलमानों को एक कठोर संदेश देने तथा हिन्दुओं-सिखों के मन में आत्मविश्वास निर्माण करने के लिए ही संघ ने यह पुरुषार्थ प्रदर्शित करने का फैसला किया था। शाम को ठीक पांच बजे संचलन निकला, इस संचलन की सुरक्षा के लिए स्वयंसेवकों ने विशेष व्यवस्था की थी। दस हजार स्वयंसेवकों का यह शानदार संचलन इतना जबरदस्त और प्रभावशाली था कि किसी भी मुसलमान की हिम्मत नहीं हुई कि वह इस पर हमला कर दे।
भारत की पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर हो रहे हिन्दू-मुस्लिम दंगों एवं अशांति से दूर, तथा शरणार्थी शिविरों के दुःख, पीड़ा एवं क्रोध से परे, दिल्ली के 17, यॉर्क रोड अर्थातस्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निवास पर उनके नए मंत्रिमंडल के गठन एवं नई सरकार के कामकाज के सम्बन्ध में मंत्रणाओं का दौर जारी था। मंगलवार, पांच अगस्त की दोपहर अब शाम में ढलने जा रही थी, और नेहरू उन्हें आई हुई चिठ्ठियों के जवाब डिक्टेट करने में लगे हुए थे। नेहरू के सामने एक अगस्त को लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा भेजा गया पत्र था।
जिसमें उन्होंने पूछा था कि ‘भारत सरकार के वर्तमान ऑडिटर जनरल सर बर्टीस्टेग को स्वतंत्र भारत में भी इसी पद पर कार्य करने के लिए सेवा अवधि में बढ़ोतरी होगी या नहीं।’ इसमें उन्होंने लिखा था कि ‘यदि उनकी कार्यावधि बढाई जाती है, तो सर बर्टीस्टेग स्वयं भारत में अपना कामकाज आगे जारी रखने में रूचि रखते हैं।’ इस पत्र को सामने रखकर नेहरू अपने सचिव को इसका उत्तर लिखवाने लगे कि ‘सर बर्टीस्टेग फिलहाल वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार हैं और भारत के ऑडिटर जनरल भी हैं।
आपको तो यह जानकारी होगी ही कि हमारी नीति यह है कि जिन अंग्रेज अधिकारियों को स्वतंत्र भारत में अपना काम जारी रखने की इच्छा है, उन सभी अधिकारियों को हम सेवावृद्धि देंगे। परंतु जिन पदों पर योग्य भारतीय मिल जाएंगेवहां हम भारतीय अधिकारियों की ही नियुक्ति करेंगे। फिलहाल तो यह नीति कायम है कि जिन अधिकारियों को यहां काम करने की इच्छा है, वे अपने पद पर बने रहें। ज़ाहिर है कि सर बर्टीस्टेग स्वतंत्र भारत के ऑडिटर जनरल के रूप में काम जारी रखें, हमें कोई आपत्ति नहीं है।’
नेहरू के सामने दूसरा पत्र भी लॉर्ड माउंटबेटन का ही था, लेकिन थोड़ा पिछली दिनांक, यानी 14 जुलाई का। इस पत्र में लॉर्डमाउंट बेटन ने दो बातें लिखी थीं। पहली तो जानकारी चाही थी कि ‘उनके स्टाफ का आगे क्या भविष्य है, उन्हें क्या करना है’, और दूसरी बात यह कि ‘नई सरकार चाहे तो स्वतंत्र भारत में वे अपना विशाल वाइसरॉय हाउस छोड़कर किसी छोटे बंगले में जाना पसंद करेंगे, आगे जैसा भी निर्णय हो।’ इस पत्र का उत्तर देने से पहले नेहरू कुछ देर विचारमग्न रहे और फिर धीरे से अपने सचिव को उन्होंने इस पत्र का उत्तर डिक्टेट किया…
“प्रिय लॉर्ड माउंटबेटन,
आपके 14 जुलाई वाले पत्र में आपने प्रमुखता से दो मुद्दों का उल्लेख किया है, आपके स्टाफ और आपके आगामी रिहायशी बंगले के बारे में। इसमें से पहले मुद्दे के बारे में आपको ही निर्णय लेना है। आपकी आवश्यकताओं के अनुरूप जो भी सेवक वर्ग आपको चाहिए, स्वतंत्र भारत की तरफ से वह आपके साथ ही रहेगा। मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि लॉर्ड इस्में भी आपके साथ ही रहेंगे। आपके पद की तुलना में छोटे बंगले में स्थानांतरण संबंधी आपका विचार स्तुत्य है। परंतु वर्तमान में आपके पद की गरिमा के अनुकूल ऐसा कोई बंगला खोजना कठिन है। वैसे भी उस ‘वाइसरॉय हाउस’का तत्काल हमें, यानी स्वतंत्र भारत सरकार के लिए, कोई उपयोग नहीं है। इसीलिए फिलहाल आप दोनों पति-पत्नी अभी वाइसरॉय हाउस में ही निवास करें, यह गुजारिश है…”
कराची के प्रमुख चौराहे के पास स्थित खाली मैदान में सरसंघचालक जी की आमसभा की तैयारियां हो चुकी थीं। एक छोटा सा मंच, और उस पर तीन कुर्सियां. सामने एक छोटा सा टेबल, जिस पर पानी पीने के लिए लोटा-गिलास रखा हुआ था। मंच पर केवल एक माईक की व्यवस्था थी। मंच के सामने सारे स्वयंसेवक अनुशासित पद्धति से बैठे हुए थे। नागरिकों के लिए दोनों तरफ बैठने की व्यवस्था थी। दायीं तरफ आज की इस आमसभा के अध्यक्ष साधु टी.एल. वासवानी जी बैठे थे। साधु वासवानी, सिंधी समाज के गुरु थे। सिंधियों में उनका बड़ा मान-सम्मान था।
गुरूजी की बाईं तरफ सिंध प्रांत के संघचालक बैठे थे। गुरूजी को सुनने के लिए श्रोताओं की विशाल भीड़ जमा हो चुकी थी। सबसे पहले साधु वासवानी ने प्रस्तावना रखते हुए अपना भाषण दिया। उन्होंने कहा कि, “इतिहास में इस घड़ी, इस समय का विशेष महत्त्व रहेगा, जब हम सिंधी हिंदुओं के समर्थन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक मजबूत पहाड़ की तरह डटा हुआ है।” इसके पश्चात गुरूजी गोलवलकर का मुख्य भाषण शुरू हुआ। धीमी किन्तु धीर-गंभीर, दमदार आवाज़, स्पष्ट उच्चारण और मन में सिंध प्रांत के तमाम हिंदुओं के प्रति उनकी प्यार भरी बेचैनी…
उन्होंने कहा, “..हमारी मातृभूमि पर एक बड़ी विपत्ति आन पड़ी है। मातृभूमि का विभाजन अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का ही परिणाम है। मुस्लिम लीग ने जो पाकिस्तान हासिल किया है, वह हिंसात्मक पद्धति से, अत्याचार का तांडव मचाते हुए हासिल किया है। हमारा दुर्भाग्य है कि काँग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए। मुसलमानों और उनके नेताओं को गलत दिशा में मोड़ा गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि वे इस्लाम पंथ का पालन करते हैं, इसलिए उन्हें अलग राष्ट्र चाहिए। जबकि देखा जाए तो उनके रीति-रिवाज, उनकी संस्कृति पूर्णतः भारतीय है, अरबी मूल की नहीं… यह कल्पना करना भी कठिन है कि हमारी खंडित मातृभूमि सिंधु नदी के बिना हमें मिलेगी।
यह प्रदेश सप्त सिंधु का प्रदेश है। राजा दाहिर के तेजस्वी शौर्य का यह प्रदेश है। हिंगलाज देवी के अस्तित्त्व से पावन हुआ, यह सिंध प्रदेश हमें छोड़ना पड़ रहा है। इस दुर्भाग्यशाली और संकट की घड़ी में सभी हिंदुओं को आपस में मिल-जुलकर, एक-दूसरे का ध्यान रखना चाहिए. संकट के यह दिन भी खत्म हो जाएंगे ऐसा मुझे विश्वास है…” गुरूजी के इस ऐतिहासिक भाषण से समूची कराची थर्रा उठी और हिंदुओं में एक नए जोश का संचार हो उठा।
भाषण के पश्चात कराची शहर के कुछ प्रमुख नागरिकों के साथ गुरूजी का चायपान का कार्यक्रम रखा गया था। इस में अनेक हिन्दू नेता तो गुरूजी के परिचय वाले ही थे, क्योंकि प्रतिवर्ष अपने प्रवास के दौरान गुरूजी इनसे भेंट करते ही रहते थे। इनमें रंगनाथानंद, डॉक्टर चोईथराम, प्रोफ़ेसर घनश्याम, प्रोफेसर मलकानी, लालजी मेहरोत्रा, शिवरतन मोहता, भाई प्रताप राय, निश्चल दास वजीरानी, डॉक्टर हेमनदास वाधवानी, मुखी गोविन्दम इत्यादि अनेक गणमान्य लोग इस चायपान बैठक में उपस्थित थे।
‘सिंध ऑब्जर्वर’ नामक दैनिक के संपादक और कराची के एक मान्यवर व्यक्तित्त्व, के. पुनैया भी इस बैठक में उपस्थित थे। उन्होंने गुरूजी से प्रश्न किया, कि “क्या हम यदि खुशी-खुशी विभाजन को स्वीकार कर लें, तो इसमें दिक्कत क्या है ? मनुष्य का एक पैर सड़ जाए तो उसे काट देने में क्या समस्या है ? कम से कम मनुष्य जीवित तो रहेगा ना ?” गुरूजी ने तत्काल उत्तर दिया कि, “हां… सही कहा, मनुष्य की नाक कटने पर भी तो वह जीवित रहता ही है ना ?”
सिंध प्रांत के हिंदू बंधुओं के पास बताने लायक अनेक बातें थीं, दुःख-दर्द थे। अपने अंधकारमय भविष्य को सामने देख रहे ये हिन्दू, अत्यंत पीड़ित अवस्था में लगभग हताश हो चले थे। इन्हें गुरूजी के साथ बहुत सी बातें साझा करनी थी। परंतु समय बहुत कम था, अनेक काम और भी करने थे। गुरूजी को उस प्रान्त के प्रचारकों एवं कार्यवाहों की बैठक भी संचालित करनी थी। अन्य तमाम व्यवस्थाएं भी जुटानी थीं।
पांच अगस्त की रात को, जब उधर भारत की राजधानी दिल्ली शांत सोई हुई थी, उस समय पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और बंगाल में भीषण दंगों का दौर चल ही रहा था और इधर कराची में बैठा यह तपस्वी, विभाजन का यह विनाशकारी चित्र देखकर, हिंदुओं की आगामी व्यवस्था के बारे में विचारमग्न था…!!!
क्रमशः… भाग-6 तथाकथित स्वतंत्रता एवं उसके साथ ही विभाजन को अब महज दस रातें ही बाकी बची थी…!!!
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