स्वतंत्रता की मयार्दा

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-श्रीराम प्रजापति
सूचना तकनीक के वर्तमान युग ने मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्त न किया है। इंटरनेट ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। कोई भी सूचना या जानकारी पलक झपकते ही हमारे सामने होती है। इंटरनेट के माध्यम से आज हम विश्व पटल पर हो रही गतिविधियों को देख और सुन सकते हैं।
हजारो मील द ूर बैठे अपने प्रियजन से वीडियो चैटिंग कर सकते हैं। नये-नये आविष्कार करके श्रेष्ठ उपलब्धियों को हासिल करके मानव, मानव जाति का रुतबा बुलन्द कर रहा है। भौतिक तौर पर  पलब्धियां निश्चित तौर पर काबिल-ए-तारीफ हैं, परन्त ु जहां तक मानव जीवन के  मुख्य ध्येय परमात्मा की अनुभूति करके ‘मुक्ति पद’ को प्राप्त करने की है, इस कार्य में इन्सान आज भी पिछड़ा है। दुनियावी तौर पर हर क्षेत्र में महारत हासिल करने वाला इन्सान, आध्यात्मिक रूप से पिछड़ापन ही उजागर करता है। परम अस्तित्व परमात्मा का बोध प्राप्त किए बिना यह परम पद पाया नहीं जा सकता।
प्राय: एक तर्क दिया जाता है कि यह इन्सान के ऊपर निर्भर करता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं? विकसित देशों के नागरिकों का यह तर्क होता है कि हमारे पास सुख-सुविधाओं हैं, जीवन शैली उच्च स्तर की है तो हमें परमात्मा की प्राप्ति करन े की क्या जरूरत है? लेकिन वे भूल जाते हैं कि ईसा मसीह जी ने भी कहा है कि ‘जानो ऐसे परमात्मा को जिसकी पूजा करते हो।’ पुरातन काल से अवतारी महापुरुषों ने भी चेतन किया है कि समय रहते यह प्राप्ति कर लेनी चाहिए लेकिन स्वतंत्रता की दुहाई देकर इन्सान इस परम लक्ष्य को प्राप्त करने की चेष्टा ही नहीं करता। स्वतंत्र होना हर कोई चाहता है। घर-परिवार में भी हम देखते हैं कि बच्चों से ज्यादा प्रश्न करना उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे भी आजादी चाहत े हैं कि उन्हें कोई रोके-टोके  नहीं। स्वतंत्रता का महत्व उस सीमा तक ही है, जब तक कि मयार्दा कायम है। मयार्दा खण्डित हुई तो स्वतंत्रता का भी कोई महत्व नहीं रहता। इस सन्दर्भ में यह उदाहरण विशेष महत्व रखता है कि ‘स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि किसी को कुछ भी करने या लिखने की खुली छूट मिल गई है बल्कि इसका भाव है कि जो नियमों के दायरे, दिशा-निर्देश एवं मयादार्एं हैं, उनके अन ुरूप विचरण करना है। आजादी के साथ व्यवस्था के लिहाज से जो सीमा रेखाएं निर्धारित की जाती हैं उनका परिपालन होना चाहिए।’ भक्ति मार्ग में गुरमत को विशेष दर्जा प्राप्त है। जो गुरमत के दायरे में रहकर मयादार्पूर्वक अपनी जिम्मेदारियों को निभाता है, वही वास्तव में स्वतंत्रता की मयार्दा को निभा रहा होता है। इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्रता अपने आप में न तो महान है और न ही निकृष्ट है।
कहने का तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता का सदुपयोग या द ुरुपयोग इस को महान या निकृष्टबना देता है। इसलिए महात्माओं ने मनुष्य को स्वतंत्रता का सकारात्मक उपयोग करके श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा दी। परन्तु कैसी विडम्बना है कि आज मनुष्य स्वतंत्रता का उपयोग नीच कर्मों को करने के लिए कर रहा है जो पशु-पक्षियों में भी देखने को नहीं मिलत। नैतिक पतन का यह हाल है कि पवित्र रिश्ते भी अपवित्र रूप धारण करते दिखाई देते हैं। दूसरों को पीड़ा देने का स्वभाव बढ़ता जा रहा है। आखिर समाधान क्या है? मानव क ैसे अपनी स्वतंत्रता को सम्पूर्ण रूप दे सकता है? विचारने पर पाते हैं कि महात्मा स्वयं दु:ख सहकर दूसरों को सुख देने का प्रयास करते हैं। सहनशीलता, मृदुलता और परोपकार के लिए कर्म करने की स्वतंत्रता का सदुपयोग करते हैं और इसी का अनुसरण करने का उपदेश देते हैं ताकि मनुष्य सचमुच श्रेष्ठ या महान प्रमाणित हो वरना यह कोरा अहंकार कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूं मनुष्य को घोर पतन के गर्त में ले जाने का कारण बनेगा। स्वतंत्रता का दूसरा पहलू है-कर्त व्य व उत्तरदायित्व। मात्र एक शब्द का प्रयोग करें तो यह मयार्दा है। पारिवारिक मयार्दा, सामाजिक मयार्दा एवं राष्ट्ीय मयार्दा। इन मयादार्ओं को व्यावहारिक जीवन का अविभाज्य अंग बनाना होगा तभी मानव को सर्वश्रेष्ठता प्राप्त हो पायेगी तथा स्वतंत्रता सार्थक रूप लेगी।

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