पीआईएल का प्रमुख उदाहरण, 1979 में हुसैनआरा खा़तून और बिहार राज्य का मुकदमा है। इस केस में कारागार और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय परिस्थितियों को सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाया गया था। यह मामला, एक अधिवक्ता द्वारा, दि इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी एक खबर, जिसमें बिहार के जेलों में बन्द हजारों विचाराधीन कैदियों का हाल वर्णित था, के आधार पर दायर किया गया था। मुकदमे के काऱण, 40,000 से भी ज्यादा कैदियों को रिहा किया गया था। त्वरित न्याय को एक मौलिक अधिकार माना गया, जो उन कैदियों को नहीं दिया जा रहा था। इस सिद्धांत को बाद के मुकदमो में भी स्वीकार किया गया।
एमसी मेहता और भारतीय संघ और अन्य का मुुकदमा, जो 1998 से 2001 तक चला में, अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली मास्टर प्लान के तहत और दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिये दिल्ली के रिहायशी इलाकों से करीब एक लाख औद्योगिक इकाईयों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाय। इस फैसले ने वर्ष 1999 के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में औद्योगिक अशांति और सामाजिक अस्थिरता को भी जन्म दिया था और इसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने की थी कि यह कदम मजदूरों के हित और उनकी रोजी रोटी पर असर डालेगा, पर पर्यावरण और बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण की रोकथाम के लिये यह ज़रूरी था कि, ऐसे कदम उठाए जांय और उद्योगों के लिये कोई अन्य वैकल्पिक जगह दी जाय। हालांकि इस पीआईएल के काऱण लगभग बीस लाख लोग प्रभावित हुए, जो उन इकाईयों में सेवारत थे।
इसी से जुड़े एक अन्य, फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर 2001 में आदेश दिया कि, दिल्ली की सभी सार्वजनिक बसों को चरणबद्ध तरीके से सिर्फ सीएनजी (कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस) ईंधन से चलाया जाए। क्योंकि यह माना गया कि सीएनजी, डीज़ल की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी है। हालाँकि बाद में यह भी पाया गया कि बहुत कम गंधक वाला डीज़ल भी एक अच्छा या बेहतर विकल्प हो सकता है।
पर्यावरण, महानगरों की एक बड़ी समस्या है और यह एक वैश्विक समस्या है। दुनियाभर के देश अपनी अपनी तरह से इस समस्या से निपटने के लिये प्रयासरत है। एमसी मेहता की याचिका से, लोग प्रभावित भी हुए और उनकी आलोचना भी की गयी पर जब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर सरकार ने कार्यवाही की तो उसके सुखद और बेहतर परिणाम भी मिले।
ऐसा नही कि सुप्रीम कोर्ट के इस सदाशयता से भरे प्राविधान का दुरुपयोग नहीं हुआ है। दुनिया मे एक भी कानून ऐसा नहीं बना है, जिसका दुरुपयोग न हुआ हो। मनुष्य की कुटिल मेधा हर कानून में कोई न कोई छिद्र ढूंढ ही लेती है।
जनहित की आड़ में, स्वहित या अन्य स्वार्थ की बाते भी सामने आयी हैं। जब जनहित याचिकाओं पर त्वरित कार्यवाही होने लगी तो बहुत सी ऐसी याचिकाएं भी दायर होने लगीं जिनका सरोकार, प्रचार पाना था और स्वयं उच्चतम न्यायालय ने एक पीआईएल में यह कहा,
” अगर इसको सही तरीके से नियंत्रित नहीं किया गया और इसके दुरुपयोग को न रोका गया, तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिशोध, निजी या राजनैतिक स्वार्थ का हथियार बन सकता है।”
भारत के मुख्य न्यायधीश के जी बालाकृष्णन ने 8 अक्टूबर 2008 को सिंगापुर लॉ अकादमी में दिये गये अपने भाषण में पीआईएल की अनिवार्यता और महत्व दुहराते हुए यह भी माना कि
” पीआईएल द्वारा न्यायालय मनमाने तरीके से विधायिका के नीतिगत फैसलों में दखल दे सकता है, और ऐसे आदेश दे सकता है जिनका क्रियान्वयन कार्यपालिका के लिये कठिन हो और जिससे सरकार के अंगों के बीच के शक्ति संतुलन की अवहेलना हो। “
उन्होंने यह भी माना कि
” पीआईएल ने बेमतलब केसों को भी जन्म दिया है जिनका लोक-न्याय से कोई सरोकार नहीं है। न्यायालय में मुकदमों की संख्या बढ़ाकर इसने न्यायालय के मुख्य काम को प्रभावित किया है और माना कि जजों के अपने अधिकारों से आगे बढने की स्थिति में कोई जाँच प्रक्रिया भी नहीं है। “
जस्टिस भगवती के क्रांतिकारी कदम के बाद न्यायपालिका जनता के राहत के लिये अंतिम आश्रय के रूप में धीरे धीरे प्रतिष्ठित हो गई लेकिन जब भारत आज़ाद हुआ था, तब ऐसा नहीं था। 19 मई 1950 को एके गोपालन बनाम राज्य के मामले में संविधान के अनुच्छेद 21 की शाब्दिक व्याख्या करते हुए यह फैसला दिया गया था कि,
” अनुच्छेद 21 में व्याख्यित ‘विधिसम्मत प्रक्रिया’ का मतलब सिर्फ उस प्रक्रिया से है जो किसी विधान में लिखित हो और जिसे विधायिका द्वारा पारित किया गया हो।”
अर्थात्, अगर भारतीय संसद ऐसा कानून बनाती है जो किसी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से अतर्कसंगत तरीके से वंचित करता हो, तो वह मान्य होगा। न्यायालय ने यह भी माना कि अनुच्छेद 21 की विधिसम्मत प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय या तर्कसंगतता शामिल नहीं है। न्यायालय ने यह भी माना कि अमरीकी संविधान के उलट भारतीय संविधान में न्यायालय विधायिका से हर दृष्टिकोण में सर्वोच्च नहीं है और विधायिका अपने क्षेत्र (कानून बनाने) में सर्वोच्च है।
इस फैसले की काफी आलोचना भी हुई । यह उच्चतम न्यायालय के आरंभिक वर्ष थे जब इसका रुख सावधानीभरा और विधायिका समर्थक था। यह काल हर तरह से, आज के माहौल, जब न्यायिक समीक्षा की अवधारणा स्थापित हो चुकी है और न्यायालय को ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो नागरिकों को राहत प्रदान करता है और नीति-निर्माण भी करता है जिसका राज्य को पालन करना पड़ता है, से भिन्न था। बाद के फैसलों में, न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित हुई और इस बीच विधायिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद और संघर्ष भी हुआ।
गोलक नाथ और पंजाब राज्य ( 1967 ) केस में 11 जजों की खंडपीठ ने माना कि संसद ऐसा संविधान संशोधन पारित नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो। केशवानंद भारती और केरल राज्य ( 1973 ) केस में उच्चतम न्यायालय ने गोलक नाथ निर्णय को रद्द करते हुए यह दूरगामी सिद्धांत दिया कि संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की मौलिक संरचना को बदलने वाला संशोधन करे और यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा मौलिक संरचना का भाग है। आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर तथा अन्य बनाम शिवकांत शुक्ला ( 1976) केस, में न्यायालय ने कार्यपालिका को नागरिक स्वतंत्रता और जीने के अधिकार को प्रभावित करने की स्वछंदता दी थी, का भी योगदान माना जाता है। इस फैसले ने अदालत के नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षक होने की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। आपातकाल ( 1975 – 76 ) के पश्चात् न्यायालय के रुख में गुणात्मक बदलाव आया और इसके बाद पीआईएल के विकास को कुछ हद तक इस आलोचना की प्रतिक्रिया के रूप में देख सकते हैं।
क्या न्यायपालिका, लोककल्याणकारी राज्य और विधि के शासन की उदात्तता को आगे बनाये रख सकेगी, यह आज के माहौल में एक ज्वलंत प्रश्न है। न्यायपालिका के सामने अपनी भी बहुत सी समस्याएं हैं जिनके समाधान के लिए विधायिका और कार्यपालिका पर उसे निर्भर रहना पड़ता है। न्यायपालिका अपनी लाख स्वतंत्रता के बावजूद, एक राज्य के अंतर्गत राज्य के रूप में विकसित नहीं हो सकती है। लेकिन जनता के अंतिम आश्रय के रूप में वह राज्य के शेष अंगों की तुलना में कहीं अलग और विश्वसनीय ठहरती है। आज भी सुप्रीम कोर्ट की साख है और तमाम आलोचनाओं के बाद भी उम्मीद न्यायपालिका से है। बदलते समय के अनुसार, जब सरकार के लोककल्याणकारी राज्य का एजेंडा, धीरे धीरे बेहद शातिर और पोशीदा तऱीके से, बदल रहा है तो ऐसे समय मे न्यायपालिका को जनहित के मुद्दों और लोककल्याणकारी राज्य की मौलिक सोच के पक्ष में जम कर खड़ा होना होगा। अब यह भविष्य ही बता पायेगा कि, बदलाव के इस जटिल और कठिन समय मे सुप्रीम कोर्ट कहां होगा और उसकी भूमिका क्या रहेगी। हमें बेहतर की उम्मीद करनी चाहिए।