नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला…

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महापुरुषों का स्मरण उनके विचारों से करना ही उनके प्रति आदर व सम्मान प्रगट करने का सर्वोत्तम तरीका है। उससे ही हमारा कल्याण होता है। गुरु नानक देव जी ने समाज के कल्याण के लिए अपनी दिव्य बाणी से जगत के अंधकार को प्रकाशमय बनाया।
राम सुमिर, राम सुमिर, एही तेरो काज है॥
मायाकौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।
जगत सुख मान मिथ्या, झूठौ सब साज है॥१॥
सुपने ज्यों धन पिछान, काहे पर करत मान।
बारूकी भीत तैसें, बसुधाकौ राज है॥२॥
नानक जन कहत बात, बिनसि जैहै तेरो गात।
छिन छिन करि गयौ काल्ह तैसे जात आज है॥३॥
(रामनाम का स्मरण ही मुख्य कार्य है। जगत का सुख झूठा मानकर, मोहमाया छोड़कर हरि की शरण में जाओ। धन दौलत तो स्वप्न जैसी और राजपाट रेत की दीवार जैसा है, इस पर अभिमान कैसा? जिस प्रकार क्षण क्षण करके कल चला गया, आज भी बीत जाएगा, और यह शरीर नष्ट हो जाएगा, इसलिए रामनाम का भजन कर लो।
जो नर दुखमें दुख नहिं मानै।
सुख-सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै॥
नहिं निंदा, नहिं अस्तुति जाके, लोभ-मोह-अभिमाना।
हरष सोकतें रहै नियारो, नाहिं मान-अपमाना॥
आसा-मनसा सकल त्यागिकें, जगतें रहै निरासा।
काम-क्रोध जेहि परसै नाहिन, तेहि घट ब्रह्म निवासा॥
गुरु किरपा जेहिं नरपै कीन्ही, तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिंदसों, ज्यों पानी संग पानी॥
(जो इंसान न तो दु:ख से प्रभावित होता है और न ही सुख, स्नेह और भय से, जो स्वर्ण को भी मिट्टी समझता है, जो निंदा और स्तुति में, मान अपमान में समान रहता है, जिसमें लोभ-मोह-अभिमान नहीं है, जो आशा आकांक्षा त्याग कर, संसार से निर्लिप्त है, काम और क्रोध जिसे स्पर्श भी नहीं करते, उसके ह्रदय में ब्रह्म निवास करता है। यह बात वही जान पता है, जिस पर गुरू की कृपा होती है और गुरु नानक का कथन है कि ऐसा व्यक्ति गोविन्द से उसी प्रकार मिल जाता है, जैसे पानी से पानी अर्थात वह आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।)
या जग मित न देख्यो कोई।
सकल जगत अपने सुख लाग्यो, दुखमें संग न होई॥
दारा-मीत, पूत संबंधी सगरे धनसों लागे।
जबहीं निरधन देख्यौ नरकों संग छाड़ि सब भागे॥
कहा कहू या मन बौरेकौं, इनसों नेह लगाया।
दीनानाथ सकल भय भंजन, जस ताको बिसराया॥
स्वान-पूंछ ज्यों भयो न सूधो, बहुत जतन मैं कीन्हौ।
नानक लाज बिरदकी राखौ नाम तिहारो लीन्हौ॥
(इस जगत में मित्र कोई नहीं देखा। सुख में सब साथ देते हैं, दु:ख में कोई नहीं। पत्नी, मित्र, पुत्र सब धन के ही साथी हैं, निर्धन मनुष्य का सब साथ छोड़ देते हैं। यह मन भी कितना पागल है, जो सब प्रकार के भय का नाश करने वाले दीनानाथ को भूलकर इनसे प्रीत करता है े मैंने मन को समझाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु यह तो कुत्ते की पूंछ की तरह टेढ़ा ही रहा, माना ही नहीं। अब तो बस आपके नाम का ही सहारा है, अपना विरद स्मरण कर मेरी रक्षा करो।)
काहे रे बन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई॥१॥
पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है, मुकर माहि जस छाई।
तैसे ही हरि बसै निरंतर, घट ही खोजौ भाई ॥२॥
बाहर भीतर एकै जानों, यह गुरु ग्यान बताई।
जन नानक बिन आपा चीन्हे, मिटै न भ्रमकी काई॥३॥
(जो सबमें है, घटघटवासी है, तुममें भी समाहित है, उसे जंगल में ढूंढने क्यों जाना? जैसे फूल में सुगंध होती है, उसी प्रकार हरि निवास करते हैं, वन्धु, उन्हें अपने अन्दर ही ढूंढो। गुरू ने यही ज्ञान दिया है कि बाहर और भीतर सब दूर वही है, जो इस प्रकार स्वयं को जान लेता है, उसके भ्रम की काई हट जाती है अर्थात जिस प्रकार काई हटने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार उस इंसान का भी दिव्य स्वरुप हो जाता है।

गुरु नानक देव एक ऐसे संत जिसकी वाणी से हर बार प्रेम का ही मंत्र निकला
भारत की पावन भूमि पर कई संत-महात्मा अवतरित हुए हैं, जिन्होंने धर्म से विमुख सामान्य मनुष्य में अध्यात्म की चेतना जागृत कर उसका नाता ईश्वरीय मार्ग से जोड़ा है। ऐसे ही एक अलौकिक अवतार गुरु नानकदेव जी हैं। कहा जाता है कि गुरु नानकदेव जी का आगमन ऐसे युग में हुआ जो इस देश के इतिहास के सबसे अंधेरे युगों में था। उनका जन्म 1469 में लाहौर से 30 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ जो अब पाकिस्तान में है। बाद में गुरुजी के सम्मान में इस स्थान का नाम ननकाना साहिब रखा गया। श्री गुरु नानकदेव संत, कवि और समाज सुधारक थे। धर्म काफी समय से थोथी रस्मों और रीति-रिवाजों का नाम बनकर रह गया था। उत्तरी भारत के लिए यह कुशासन और अफरा-तफरी का समय था। सामाजिक जीवन में भारी भ्रष्टाचार था और धार्मिक क्षेत्र में द्वेष और कशमकश का दौर था। न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में ही, बल्कि दोनों बड़े धर्मों के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच भी। इन कारणों से भिन्न-भिन्न संप्रदायों में और भी कट्टरता और बैर-विरोध की भावना पैदा हो चुकी थी। उस वक्त समाज की हालत बहुत बदतर थी। ब्राह्मणवाद ने अपना एकाधिकार बना रखा था। उसका परिणाम यह था कि गैर-ब्राह्मण को वेद शास्त्राध्यापन से हतोत्साहित किया जाता था। निम्न जाति के लोगों को इन्हें पड़ना बिलकुल वर्जित था। इस ऊंच-नीच का गुरु नानकदेव पर बहुत असर पड़ा। वे कहते हैं कि ईश्वर की निगाह में सब समान हैं। ऊंच-नीच का विरोध करते हुए गुरु नानकदेव अपनी मुखवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं कि नानक उत्तम-नीच न कोई जिसका भावार्थ है कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ है। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति ईश्वर के नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। तब व्यक्ति ईश्वर की निगाह में सबसे बड़ा है और उसके समान कोई नहीं। नानक देव की वाणी में नीचा अंदर नीच जात, नीची हूं अति नीच। नानक तिन के संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रीस समाज में समानता का नारा देने के लिए नानक देव ने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब उसके बच्चे हैं और पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता है। नानक जंत उपाइके, संभालै सभनाह। जिन करते करना कीआ, चिंताभिकरणी ताहर जब हम एक पिता एकस के हम वारिक बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता। गुरु नानक जात-पात का विरोध करते हैं। उन्होंने समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही है फिर यह जाति के कारण ऊंच-नीच क्यों? गुरु नानक देव ने कहा कि मनुष्य की जाति न पूछो, जब व्यक्ति ईश्वर की दरगाह में जाएगा तो वहां जाति नहीं पूछी जाएगी। सिर्फ आपके कर्म ही देखे जाएंगे। गुरु नानक देव ने पित्तर-पूजा, तंत्र-मंत्र और छुआ-छूत की भी आलोचना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु नानक साहिब हिंदू और मुसलमानों में एक सेतु के समान हैं। हिंदू उन्हें गुरु एवं मुसलमान पीर के रूप में मानते हैं। हमेशा ऊंच-नीच और जाति-पाति का विरोध करने वाले नानक के सबको समान समझकर गुरु का लंगर शुरू किया, जो एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करने की प्रथा है। ऊंच-नीच का विरोध करते हुए गुरु नानकदेव अपनी मुखवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं कि नानक उत्तम-नीच न कोई जिसका भावार्थ है कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी का आरंभ मूल मंत्र से होता है। ये मूल मंत्र हमें उस परमात्मा की परिभाषा बताता है जिसकी सब अलग-अलग रूप में पूजा करते हैं।
एक ओंकार : अकाल पुरख (परमात्मा) एक है। उसके जैसा कोई और नहीं है। वो सब में रस व्यापक है। हर जगह मौजूद है।
सतनाम : अकाल पुरख का नाम सबसे सच्चा है। ये नाम सदा अटल है, हमेशा रहने वाला है।
करता पुरख : वो सब कुछ बनाने वाला है और वो ही सब कुछ करता है। वो सब कुछ बनाके उसमें रच-बस गया है।
निरभऊ : अकाल पुरख को किसी से कोई डर नहीं है।
निरवैर : अकाल पुरख का किसी से कोई बैर (दुश्मनी) नहीं है।
अकाल मूरत : प्रभु की शक्ल काल रहित है। उन पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। बचपन, जवानी, बुढ़ापा मौत उसको नहीं आती। उसका कोई आकार कोई मूरत नहीं है।
अजूनी : वो जूनी (योनियों) में नहीं पड़ता। वो ना तो पैदा होता है ना मरता है।
स्वैभं :(स्वयंभू) उसको किसी ने न तो जनम दिया है, न बनाया है वो खुद अवतरित हुआ है।
गुरप्रसाद : गुरु की कृपा से परमात्मा हृदय में बसता है। गुरु की कृपा से अकाल पुरख की समझ इंसान को होती है।