-अजय शुक्ल
उम्मीद की जाती थी कि अंग्रेजी हुकूमत से आजाद होने के बाद भारत में एक नया सवेरा होगा। गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश में हम प्यार-मोहब्बत से आगे बढ़ेंगे। महिलायें बेखौफ मस्ती में जुल्फें लहराती दिखेंगी। अदालतें इंसाफ का मंदिर बनेंगी और पुलिस मित्र। हम इस दिशा में आगे बढ़े थे मगर राह चलते भटक गये। हमारी इन उम्मीदों में फिलहाल कोई पूरी होती नहीं दिखती। बदहाली और अराजकता अब संस्थागत बन चुकी है। सत्ता का चेहरा क्रूर हो गया है। हम यह बात अगस्त महीने में कर रहे हैं क्योंकि यह वही अगस्त का महीना है,जो भारतीय इतिहास में कई कारणों से सुखद माना जाता है। 22 अगस्त 1639 को पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास की स्थापना की थी। 22 अगस्त 1921 में महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत की दिशा में एक कदम बढ़ाया था। आठ अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में गांधी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंका था। उन्होंने तब कहा था कि‘स्वतंत्रता प्राप्त करके ही आपका काम खत्म नहीं होगा। हमारी कार्ययोजना में तानाशाहों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारा ध्येय स्वतंत्रता प्राप्त करना है। उसके बाद जो भी शासन संभाल सके, संभाल ले।’ आजादी की इस लड़ाई का नतीजा 15 अगस्त 1947 को तिरंगा लहराने के साथ हुआ, मगर आजादी की लड़ाई जिन उद्देश्यों को पाने के लिए लड़ी गई, वही हासिल नहीं हो सका। आजादी के 73 साल तय करने के बाद हम देखते हैं कि आबादी जरूर बढ़ी मगर उसमें घृणा, दूसरों के हक छीनने और महिलाओं की आबरू लूटने की प्रवृत्ति अधिक है।
देश की आजादी के वक्त हमारी आबादी मात्र 33 करोड़ थी, जिसमें 100 करोड़ का इज़ाफ़ा हो चुका है। हमारी आबादी इसलिए इतनी तेजी से बढ़ी क्योंकि सरकारों की प्राथमिकता महामारियों और भुखमरी पर काबू पाना था। लोगों के जीवन में खुशहाली लाकर परिवारों को बढ़ाने के लिए प्रेरित करना था। खाद्यान उत्पादन के लिए हरित क्रांति और बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए दुग्ध क्रांति हुई। औद्योगिक क्रांति ने हमारे लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया। हमारी अर्थव्यवस्था सुधरी और खरीद क्षमता बढ़ी। सार्वजनिक क्षेत्र के विद्यालयों से निकले बच्चों ने विश्व में परचम लहराया। लोगों की सेहत सुधारने में सरकारी अस्पतालों ने बड़ा योगदान दिया। अब हालात बदले-बदले से हैं। इस खुशहाली को किसी की नजर लग गई है शायद। सत्ता के लिए जाति-सांप्रदाय का खेल शुरू हुआ, तो हम देश की समृद्धि और संस्कारों को भुला बैठे। कोविड-19 महामारी से देश और विश्व जूझ रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। बेरोजगारी चरम पर है और आय घट रही है। युवा दिशा भ्रमित हो, अपराध की राह अपना रहा है। ऐसे वक्त में भी हमारे सत्तानशीं एजेंडा साधने में लगे हैं। नतीजतन हम प्रति व्यक्ति आय में टॉप 100 देशों में भी नहीं हैं। हम भले ही अंतरिक्ष विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में आगे बढ़े हों मगर सामाजिक विकास के क्षेत्र में विश्व में 102वें नंबर पर हैं। यही नहीं, हमारे देश में भुखमरी तेजी से बढ़ी है। हम हंगर इंडेक्स में भी 102वें पायदान हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर पूरा देश तीनों वक्त भरपेट भोजन करे, तो देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो जायेगा। हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा सेवायें बुरे हाल में हैं। कोरोना महामारी से छह माह जूझने के बाद भी हम न तो मरीजों को संभाल पा रहे और न ही नागरिकों को मदद दे पा रहे। अभी तक सिर्फ तीन फीसदी लोगों के ही टेस्ट हो पाये हैं।
हम ख़ुशहाली के मामले में भी बेहद गरीब हो गये हैं। विश्व हैप्पीनेश इंडेक्स में हमारा स्थान144वां है। ऐसा क्यों हो रहा है कि हम संतुष्टि का अहसास नहीं कर पा रहे? आमजन तनाव ग्रस्त है। हम अकारण काल्पनिक भय और भविष्य की चिंता में फंसे हैं। सामाजिक दूरी बनाने के चक्कर में देशवासी ही आपस में ही विश्वास खो रहे हैं। तनावग्रस्त और कुंठित युवा पीढ़ी तरक़्क़ी की राह पर चलने के बजाय नकारात्मक हो रही है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के बाद भी हम अपने नागरिको के लोकतांत्रिक अधिकार नहीं दे पा रहे। नागरिक अधिकार हों या अभिव्यक्ति की आज़ादी सभी में हम संक्रमित हैं। धार्मिक सहिष्णुता खत्म हो रही है। हमारा देश इस वक्त विश्व में सबसे युवा है। इन युवाओं को सही दिशा दी जाये तो तय है कि हमें विश्व की महाशक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता। हमारी बौद्धिक संपदा से विश्व संचालित है। अर्थ का क्षेत्र हो या विज्ञान-तकनीक का, सभी वैश्विक मंचों पर हमारे देश से गये युवा हैं। बावजूद इसके, हालात यह हैं कि हमारी सरकार आर्थिक दशा को सुधारने के लिए निजीकरण की राह अपना रही है। लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, गुवाहाटी,मेंगलुरू और तिरुवनंतपुरम जैसे हवाई अड्डों को 50 साल के लिए अडानी समूह को सौप दिया गया। कई रेलवे स्टेशन, बस अड्डों से लेकर एयरपोर्ट्स, एयर इंडिया, बीएसएनएल,बीपीसीएल, रिफाइनरीज सहित नवरत्न कहे जाने वाले दर्जनों पीएसयू कारपोरेट कंपनियों को बेचने की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में हम आर्थिक रूप से सुरक्षित होने का अहसास भी नहीं कर सकते। व्यवसायिक क्षेत्र में भी नकारात्मक माहौल बन रहा है।
बिगड़ी अर्थव्यवस्था के दौर में विश्वबैंक ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह भारत की आर्थिक वृद्धि के अनुमान को और भी घटाएगा। उसने यह भी कहा है कि कोविड-19 संकट से बाहर आने के लिए स्वास्थ्य, श्रम, भूमि, कौशल और वित्त जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। बहुपक्षीय संस्थान ने भी भारत के बारे लिए कहा है कि जो चुनौतियां उभरी हैं, उनका असर संभावनाओं पर पड़ेगा। विश्व बैंक का मानना है कि भारत का राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष में बढ़कर 6.6 फीसदी से भी अधिक हो सकता है। इन रिपोर्ट्स ने हमारे लोगों में डर पैदा किया है। डर का माहौल हमारी आधी आबादी में बहुत अधिक है। सबसे असहाय स्थिति में हमारी महिलायें दिखती हैं। वह न सिर्फ वित्तीय खतरे से जूझ रही हैं, बल्कि सामाजिक संकट में भी फंसी हैं। इस वक्त हमारे लिए एक सुखद खबर अमेरिका से आई है कि वहां उपराष्ट्रपति पद की दौड़ में भारतीय मूल की महिला सबसे आगे है। वहीं, विडंबना यह है कि हमारे देश में महिलायें इस स्तर पर खड़ी नहीं हो पा रहीं। वह अपने देश में ही खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर पांच घंटे में एक महिला बलात्कार का शिकार हो जाती है। हर 9 घंटे में एक गैंगरेप हो जाता है। हमारी बच्चियां ही नहीं बेटे भी यहां सुरक्षित नहीं हैं। वजह दो हैं, एक लड़कियों को उपभोग की वस्तु मानना और दूसरा उन पर यकीन न होना। इस मानसिकता ने उन्हें कमजोर किया है। यह हाल तब है, जबकि हमारे प्रधानमंत्री इसको लेकर संजीदा हैं। उन्होंने पांच साल पहले देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा दिया था। न्यायिक स्तर पर भी विश्व में हमारी साख गिरी है। इंसाफ न मिलना या देरी से मिलने के कारण महिलायें ही नहीं आमजन भी व्यवस्था से भय महसूस करने लगा है। यहां सच बोलना भी सजा भुगतने जैसा होता है। नामचीन वकील प्रशांत भूषण अवमानना केस इस वक्त चर्चा में है।
इन हालात में हम यह सोचने को मजबूर हैं कि आखिर आजादी के 73 साल बाद भी हम कहां खड़े हैं? क्या हम महात्मा गांधी की उन आशंकाओं को सच तो साबित नहीं कर रहे,जिनसे वह आजादी की लड़ाई के वक्त भी जूझ रहे थे, यानी हिंसा। यह हिंसा मानसिक,सामाजिक, आर्थिक और सत्ता की थी। हमें इस पर गंभीर चिंतन करना पड़ेगा। अगस्त क्रांति ऐसे भारत के लिए नहीं हुई थी बल्कि नागरिकों के बीच सौहार्दपूर्ण तरक्की के लिए थी। भयविहीन समाज-व्यवस्था की उम्मीद पूरी होनी चाहिए। नहीं तो आजादी का मोल नहीं रहेगा।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)